(तीसरा विषय)
परम ईश्वर
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शाहिदा : तो फिर आपके अनुसार क्या सभी देवी-देवताओं की पूजा करना उचित है?
वेदांत : हाँ उचित तो है, पर ये भी जान लीजिये कि पूजा और भक्ति में अंतर होता है। पूजा का अर्थ होता है आदर-सम्मान प्रकट करना, और भक्ति का अर्थ होता है कि हमने ये स्वीकार कर लिया है कि कोई एक विशेष व्यक्ति ही ‘परम भगवान' हैं और हम उनके भक्त, यानि उनके सिद्धांतों का पालन करने वाले हैं। किसी दूसरे देवी-देवता की पूजा करने का तात्पर्य उनको परम ईश्वर या एकमात्र ईश्वर मानना नहीं होता है। उसी प्रकार जैसे हम ‘नमस्ते’ कहते हैं। नमस्ते का अर्थ होता है कि “मैं आपको झुक कर प्रणाम करता हूँ।” इसका अर्थ ये नहीं होता कि मैं आपको ईश्वर मानता हूँ, बल्कि ये केवल अहंकार के नाश के लिए कहा जाता है। पहले छोटे बच्चे बड़ों को नमस्ते कहते हैं, और बड़े भी उत्तर में छोटे बच्चों को नमस्ते कहते हैं। ‘वन्दे मातरम्’ भी इसी प्रकार से कहा जाता है। वन्दे मातरम् का अर्थ होता है कि हम पृथ्वी की देवी ‘भूमि’ की स्तुति करते हैं, या उनकी पूजा करते हैं। प्राचीन काल में ये सम्पूर्ण पृथ्वी की देवी भूमि के लिए बोला जाता था, लेकिन अज्ञानता के कारण आजकल ये केवल हमारे ‘भारत देश’ के लिए कहा जाता है।
शाहिदा : क्या सभी देवी-देवताओं से ही प्रार्थना करी जा सकती है, और क्या वो हमारी मनोकामनाएं पूरी कर सकते हैं?
वेदांत : मनोकामनाएं पूरी करवाने की इच्छा तो करनी ही नहीं चाहिए, न ही भगवान से और न किसी अन्य देवता से। देवता लोग मनोकामना पूरी कर सकते हैं या नहीं, ये प्रश्न ही व्यर्थ है। इसलिए इस विषय में मैं आपको कुछ विस्तार से नहीं बताऊंगा। क्योंकि जो चीज़ चर्चा करने योग्य ही नहीं है, उसके बारे में गहन विचार करने का क्या लाभ? भगवद गीता अध्याय 7 श्लोक 23 में भगवान कृष्ण कहते हैं कि दूसरे देवी-देवताओं से मिलने वाला फल नाशवान है, यानी बस कुछ समय के लिए ही लाभ देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भौतिक वस्तु कभी आत्मसंतुष्टि और आत्मशान्ति का कारण नहीं बन सकती। यही कारण है कि मैं आपको ये भौतिक मनोकामना और भौतिकता की प्रार्थना वाले विषय नहीं समझाना चाहता।
शाहिदा : हमने तो हमेशा यही सुना है कि कृष्ण - विष्णु के अवतार हैं।
वेदांत : ऐसी मान्यता अज्ञानता के कारण है। जब हम इस्कॉन संस्था वाले कहते हैं कि केवल कृष्ण ही परम ईश्वर हैं और सभी अवतारों तथा विस्तारों का स्रोत हैं, तो इससे कई अन्य सम्प्रदाय के लोगों को आपत्ति होती है। क्योंकि अधिकांश लोग यही सोचते हैं कि कृष्ण तो स्वयं श्रीविष्णु के अवतार हैं। वैसे कृष्ण और विष्णु में कोई अंतर नहीं है, पर कृष्ण - विष्णु के अवतार नहीं, बल्कि श्रीविष्णु कृष्ण के विस्तार स्वरुप हैं। हिन्दू धर्म की सबसे पवित्र और अंतिम पुस्तक ‘भागवत महापुराण’ जिसे ‘भागवतम्’ भी कहा जाता है, उसके पहले स्कंध, अध्याय 3 श्लोक 28 में भी ये कहा गया है - “सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश हैं या कलाएं हैं, पर श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही हैं।” इसके इलावा अन्य पुस्तक ब्रह्मसंहिता 5.1 में इस ब्रह्मांड के रचयता ‘ब्रह्मा’ कहते हैं कि - “कृष्ण जिन्हें गोविंद के नाम से जाना जाता है। उनसे प्राचीन या बड़ा कोई नहीं है और वो सभी कारणों के कारण हैं।”
शाहिदा : लेकिन अधिकांश लोगों की मान्यता ऐसी क्यों है कि कृष्ण - विष्णु के अवतार हैं?
वेदांत : क्योंकि भागवतम् के 10वे स्कंध के पहले अध्याय में कुछ इस प्रकार से ही बताया गया है। लेकिन उसके बाद वाली कथा हमें हिन्दू धर्म की एक दूसरी पुस्तक ‘गर्ग संहिता’ में मिलती है। गर्ग संहिता के गोलोक खंड में स्वयं भगवान विष्णु देवताओं को ये बताते हैं, कि सभी अवतारों या विस्तारों के वास्तविक स्रोत तो भगवान श्री कृष्ण हैं। इसका अर्थ ये बिल्कुल भी नहीं है कि भगवान कृष्ण और विष्णु में कुछ अंतर है, ये दोनों एक ही तत्व कहे जाते हैं। विष्णु, महाविष्णु आदि ये सब कृष्ण के ही विस्तार हैं। सरल भाषा में कहें तो कृष्ण इन सभी रूपों में एक साथ उपस्थित हैं।
शाहिदा : पर ये कैसे संभव हो सकता है? एक ही व्यक्ति इतने सारे अनेकों रूपों में कैसे उपस्थित हो सकते हैं?
वेदांत : ये विषय समझाने के लिए इस्कॉन के संस्थापक गुरुदेव ‘श्रील प्रभुपाद’ बताते हैं, कि जैसे गिरगिट अपनी आंखें 360 डिग्री तक भी घुमा सकता है, जबकि हम मनुष्य लोग 120 डिग्री भी सरलता से नहीं देख पाते, तथा ऑक्टोपस के पास 8 भुजाएं होती हैं, जिसे आवश्यकता पड़ने पर वो पैरों में भी बदल सकता है। जबकि हम लोग इस प्रकार का कुछ सोच भी नहीं सकते, इसलिए हमें ये असंभव सा ही लगेगा। पर क्योंकि हमें ये असंभव लगता है, इससे ये वास्तव में असंभव नहीं हो जायेगा। भगवान तो सर्वशक्तिमान हैं, उनके लिए कुछ भी करना असंभव नहीं हो सकता। किसी भी कार्य को ईश्वर के लिए असंभव कहना बहुत बड़ी मूर्खता है।
शाहिदा : ऐसा भी तो कहा जाता है क़ि हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता होते हैं, इसका क्या रहस्य है?
वेदांत : हिन्दू धर्म में बहुत सारे देवी देवताओं का उल्लेख किया गया है, कुछ लोग 33 करोड़ देवी देवताओं की संकल्पना को भी सत्य मानते हैं। हालांकि करोड़ों देवी-देवता होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि प्रत्येक प्राकृतिक वस्तु पर अलग-अलग देवी-देवताओं का राज होता है। 33 करोड़ ही नहीं, ये आंकड़ा इससे कई गुना अधिक भी हो सकता है। और कई सम्प्रदाय के लोग इस विषय को ऐसे भी बताते हैं कि वेदों में 33 कोटि देवताओं की बात कही गयी है, पर उनके अनुसार वेदों में कोटि शब्द का अर्थ करोड़ नहीं बल्कि प्रकार है। इनमें आठ वसु हैं, ग्यारह रुद्र हैं, बारह आदित्य हैं और दो अश्विनी कुमार हैं। कहा जाता है कि ये देवता अधिकतर भौतिक जगत यानी पृथ्वी, स्वर्ग जैसे ग्रहों को संचालित रखते हैं। लेकिन मैं इस 33 प्रकार के देवताओं वाली धारणा से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि वास्तव में देवी-देवताओं की संख्या करोड़ों-अरबों में है।
शाहिदा : तो देवी-देवता करोड़ो की संख्या में होते हैं, और उन सभी को शक्ति कृष्ण के द्वारा ही प्राप्त होती है, लेकिन परम ईश्वर केवल एक श्रीकृष्ण को ही कहा जाना चाहिए?
वेदांत : बिलकुल।