(चौथा विषय)

मूर्ति पूजा

━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━━


शाहिदा : पर आप लोग पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा क्यों करते हो, ये आपको मज़ाक नहीं लगता? स्वयं पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करना मूर्खता नहीं लगती आपको? जबकि इस्लाम में मूर्ति पूजा हराम है। 


वेदांत : वास्तविकता ये है कि इस्लाम में मूर्ति पूजा को हराम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस्लाम के विद्वानों को मूर्ति पूजा और ‘विग्रह सेवा’ में अंतर कभी पता ही नहीं चल सका। उन्होंने ये जानने का प्रयास ही नहीं किया कि विग्रह सेवा करने के पीछे कोई तर्क या कारण है, अथवा नहीं। मैंने क़ुरान और हदीसों की सभी पुस्तकें पढ़ी हुई हैं, इसलिए मैं इस्लाम के विषय में बहुत अच्छे से जानता हूँ। इस्लाम में केवल ‘सकाम भक्ति’ यानी फल की इच्छा के लिए की जाने वाली पूजा पर ही अधिक ध्यान दिया गया है। इसलिए कुछ ‘सूफ़ी संतों’ को छोड़कर अधिकांश मुसलमान लोगों की बुद्धि लालची होने के कारण अज्ञानता में ही सीमित रह जाती है। जबकि जो लोग अध्यात्म के विषय में अच्छे से जानते हैं, वो केवल ‘निष्काम भक्ति’ ही करते हैं। मूर्तिपूजा या विग्रह सेवा को समझाने के लिए मैं आपको एक कथा बताता हूँ। ये सतयुग की, यानी आज से लगभग 39 लाख वर्ष पहले की बात है। ‘हिरण्यकशिपु’ नाम का एक राक्षस था जिसने ब्रह्मादेव के नाम का तप करके अमर होने का वरदान मांगा था। लेकिन पृथ्वी पर अमर होना संभव नहीं है, इसलिए ब्रह्मा ने उसे कोई दूसरा वरदान मांगने के लिए कहा। तब हिरण्यकशिपु ने अपनी तुच्छ बुद्धि का उपयोग किया और कहा - मुझे ऐसा वरदान दो कि मैं आपके बनाये हुए किसी भी जीव से न मरूँ। इसका अर्थ है कि न वो मनुष्य से मर सकता था और न ही किसी पशु, पक्षी, राक्षस, कीड़े-मकोड़े, देवी-देवता, गंधर्व या इच्छाधारी नाग आदि से मर सकता था। साथ ही उसने ये वरदान भी मांगा कि न वो अपने महल के अंदर मरे, न बाहर मरे। न दिन में मरे, न रात में मरे। न अस्त्र से न शस्त्र से, न धरती पर और न ही आकाश में ही मर पाए। उसके लिए ये एक प्रकार से अमरता का ही वरदान था। उस समय लोगों की उम्र हज़ारों-लाखों वर्ष तक भी हुआ करती थी, इसलिए समय के साथ मृत्यु होना भी व्यर्थ बात थी। तो जब उसको वरदान मिला तब उसने राक्षसी बुद्धि होने के कारण, विश्वभर में अत्याचार करना, और स्वयं को ही भगवान मनवाना शुरू कर दिया। जो लोग वास्तविक भगवान श्री विष्णु की पूजा करते थे उन्हें मार दिया जाता था। पर सौभाग्य से हिरण्यकशिपु के बेटे ‘प्रह्लाद’ भगवान विष्णु के शुद्ध भक्त निकले। पहले तो हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया, लेकिन भक्त प्रह्लाद ने उल्टा उसे ही समझाना शुरू कर दिया। अंत में हारकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को जान से मारने की भी कई योजनाएं बनाई। जैसे पहाड़ से फैंकना, ज़हर खिलाना, भूखे शेरों के बीच में छोड़ना आदि-इत्यादि। बहुत प्रयास करने के बाद भी भगवान की कृपा से हर बार प्रह्लाद बच रहे थे। क्योंकि जिसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं, उसका निश्चित रूप से कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दुष्टों से अपने भक्तों की रक्षा करना ही भगवान का सबसे विशेष गुण है। हिरण्यकशिपु की एक बहन थी, जिसका नाम होलिका था। होलिका के पास एक ऐसी चादर थी जिसे ओढ़ने के बाद वो आग से जल नहीं सकती थी। हिरण्यकशिपु ने होलिका से प्रह्लाद को लेकर आग में बैठने को कहा। इसके बाद हुआ ये कि उस चादर ने अपने आप उड़कर होलिका से हटके प्रह्लाद को ढक दिया, जिससे होलिका मर गयी और प्रह्लाद फिर से बच गए। इसी घटना के दिन को ‘होली’ का त्योहार मनाया जाता है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। अंत में हिरण्यकशिपु ने भगवान विष्णु को चुनौती देते हुए प्रह्लाद से पूछा, कि बता तेरा भगवान कहाँ है? प्रह्लाद ने बहुत विनम्रता से उत्तर दिया - “पिताजी ये मत पूछिये कि भगवान कहाँ हैं, मेरे लिए तो सम्पूर्ण विश्व के प्रत्येक कण में केवल विष्णु ही उपस्थित हैं।” वैसे तो अद्वैतवादी लोगों का मानना होता है कि विश्व में जो कुछ भी है, वो सब कुछ भगवान हैं। जबकि हम वैष्णवों की मान्यता ये है कि, हमारे लिए सबकुछ ही भगवान हैं। भगवान के इलावा हम कुछ देखना ही नहीं चाहते। हम भगवान को सर्वव्यापी मानते हैं, जिसका अर्थ है कि अपने शुद्ध भक्त के लिए भगवान हर स्थान पर उपस्थित होते हैं। हिरण्यकशिपु ने फिर महल के एक खंबे की ओर इशारा करते हुए प्रह्लाद से पूछा कि क्या इसमें भी तुझे तेरा भगवान दिख रहा है? तो उत्तर में भक्त प्रह्लाद ने कहा निसंदेह मुझे तो इसमें भी विष्णु ही दिख रहे हैं। हिरण्यकशिपु ने उस खंबे पर प्रहार करने का प्रयास किया, और उस खंबे में से सच में भगवान ‘नरसिंह’ रूप में अवतरित हो गए। ये कथा बहुत बड़ी है, मैं बिल्कुल ही कम शब्दों में बता रहा हूँ। नरसिंह न तो पूरे, मनुष्य थे, न पूरे पशु थे, न ही देवता, गंधर्व, पक्षी, नाग या राक्षस थे। नरसिंह भगवान कृष्ण के मुख्य दस अवतारों में से एक हैं। उनका रूप आधा मनुष्य और आधा शेर का था। उनका चेहरा शेर का था, जिसमें बड़े-बड़े और पहने दांत थे, उनकी गरजती हुई दहाड़ से वहाँ उपस्थित सब लोग भयभीत हो गए। उनकी बड़ी-बड़ी, चमकीली आंखें क्रोध से लाल थीं, और उनकी घनी, सुनहरी अयाल गर्दन और कंधों को ढँक रही थी। वहीँ उनका मानव शरीर भी बहुत बलशाली दिख रहा था, और साथ ही वो शेर के पंजों के जैसे तीखे नाखूनों से सुसज्जित थे। भगवान ने ऐसा अनोखा रूप इसलिए बनाया हुआ था, क्योंकि वो हिरण्यकशिपु को मारने के लिए अवतरित हुए थे। और इस रूप में भगवान ने हिरण्यकशिपु के सारे वरदान भी तोड़ दिए। उसको वरदान था कि वो ब्रह्मा के बनाये हुए किसी जीव से न मरे, लेकिन ब्रह्माजी को तो स्वयं भगवान विष्णु या कृष्ण ने बनाया है। हिरण्यकशिपु महल के अंदर और बाहर नहीं मर सकता था, इसलिए भगवान ने उसे महल की चौखट पर लेजाकरके मारा। आकाश और धरती पर नहीं मर सकता था, इसलिए उसे अपनी जांघो पे रखकर मारा। अस्त्र-शस्त्र से नहीं मर सकता था, इसलिए भगवान ने उसका नाखूनों से पेट ही फाड़ दिया। इस प्रकार से हिरण्यकशिपु के सारे वरदान टूट गए और वो मर गया। अब इसमें ध्यान देने वाली बात ये है कि न तो उस खंबे पे भगवान की कोई मूर्ति या विग्रह बने हुए थे, और न ही वो खंबा भगवान था। ये तो प्रह्लाद की अनन्य भक्ति और बुद्धिमानी थी, कि उन्होंने केवल भगवान को सर्वशक्तिमान और सर्वर्व्यापी मानने के विश्वास के दम पर एक पत्थर के खंबे में से भी उन्हें प्रकट कर दिया। भगवद गीता के अनुसार दो प्रकार के भक्त होते हैं - सकाम और निष्काम। सकाम भक्त वो लोग हैं जो भगवान को महान मानते हैं क्योंकि वो भगवान के पास केवल लालच से जाते हैं। अप्सरा, हूरें और स्वर्ग या जन्नत जैसी भोगों से भरी हुई व्यर्थ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए, अपने-अपने इष्ट की पूजा करते हैं। ऐसे लोगों को वास्तव में ईश्वर से कोई प्रेम नहीं होता है, ये बात कृष्ण ने भगवद गीता के अध्याय 2 श्लोक 42 से 44 तक में बताई है। 


शाहिदा : और निष्काम भक्त कौन हैं?


वेदांत : निष्काम भक्त वो होते हैं जो भगवान से केवल उनका दर्शन, प्रेम और सेवा मांगते हैं। जैसे प्रसिद्ध महान वैष्णव संत हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मांगने का कार्य भिखारियों का होता, भक्तों का नहीं। जिस प्रकार स्वर्ग के बड़े-बड़े देवीदेवता जो भगवान से शक्ति की इच्छा रखते हैं, वो भगवान की कथा सुनने तक के लिए तरस जाते हैं। जबकि निष्काम भक्त वो हैं जिनसे मिलने के लिए भगवान स्वयं उत्सुक रहते हैं। जिस दरिद्र सुदामा को कोई देखना पसंद नहीं करता था, श्रीकृष्ण अपने उस शुद्ध भक्त के पैरों को अपने हाथों से धुलाते हैं। क्योंकि भक्त और भगवान के बीच में प्रेम का संबंध होता है, व्यापार का नहीं। भौतिक वस्तुओं के लिए प्राथना करना, ये ढोंगियों का कार्य है। भक्ति का सर्वोच्च स्तर भी यही है कि जब आप भगवान की शक्ति को भुलाकर उनके दयावान स्वभाव और प्रेम को समझो। विकारों के कारण हमने भगवान को और आध्यात्मिक जगत को छोड़कर भौतिक प्रकृति को चुन लिया है, लेकिन उसके बावजूद भगवान हमें अकेला नहीं छोड़ रहे हैं। हमें धर्म समझाने के लिए भगवान प्रत्येक युग में कभी राम के रूप में तो कभी कृष्ण के रूप अवतरित हो रहे हैं। हम बुरे से बुरे कर्म किये जा रहे हैं पर फिर भी वो हमें बार-बार मौका दे रहे हैं। इस विषय को समझने को ही मूल आध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। पूजा का अर्थ होता है स्मरण करना, अथवा आदर-सम्मान करना। अब ये हमपर निर्भर करता है कि हम भगवान को किस प्रकार से स्मरण करते हैं। केवल मन में, मुँह से जप करके, आरती करके, प्रार्थना करके, नमाज़ पढ़के, अरदास करके या भोग लगाके। पर किसी भी प्रकार को गलत कहना मूर्खता है। जब भगवान का स्मरण ही करना है तो किसी भी प्रकार से किया जा सकता है। इसपर श्रील प्रभुपाद ये उदाहरण देते हैं कि जिस प्रकार अज्ञानी लोगों को भगवान के विग्रह एक पत्थर की मूर्ति लगती है, उसी प्रकार भगवान को जानने वाले लोगों को उसमें भगवान के सिवा कुछ नहीं दिखता है। जिस प्रकार भक्त को विग्रह में भगवान के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार अभक्त और अज्ञानी को पत्थर के दर्शन होते हैं। वैसे ही जैसे अगर एक गिलास में आधा पानी भर दिया जाए, तो कुछ लोगों को वो आधा खाली दिखाई देगा और कुछ लोगों को आधा भरा हुआ। ये तो आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप अधूरापन देखते हो या पूर्णता।