(पाँचवा विषय)

विग्रह सेवा

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शाहिदा : क्या मूर्ति पूजा ही एक उचित प्रकार है पूजा करने का?


वेदांत : वैसे तो कलयुग में मंत्रजाप करना ही सबसे अधिक आवश्यक होता है, लेकिन वैष्णव लोग भगवान से संबंधित किसी भी प्रकार के कार्य और अभ्यास को छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि जितना अधिक हम आध्यात्मिक अभ्यास करते हैं, उतना अधिक ही हम अध्यात्म की ओर आकर्षित होते हैं। और मैं आपको बता ही चूका हूँ, कि जिसे अज्ञानि लोग आमतौर पर मूर्ति पूजा कहते हैं, उसे असल में विग्रह सेवा कहा जाता है। क्योंकि इस भौतिक जगत में कलयुग के नकारात्मक प्रभाव से लोगों में अधिक भक्ति और शुद्धता नहीं है, इसलिए प्रह्लाद के जैसे हर किसी को भगवान प्रत्येक स्थान पर दिखाई नहीं दे सकते हैं। पर जो लोग प्रेम भाव के कारण भगवान की सेवा का आनंद लेना चाहते हैं, वो लोग विग्रह सेवा करते हैं, जैसे भगवान को भोग, लगाना, आरती करना आदि।


शाहिदा : पर ये मूर्तिपूजा या विग्रह सेवा आप अपनी ही इच्छा से कर रहे हो, या आपके ग्रंथों में भी इसके विषय में कहा गया है?


वेदांत : विग्रह सेवा पूर्ण रूप से शास्त्र सिद्ध है। भागवत महापुराण स्कंध 11 के अध्याय 27 में भगवान कृष्ण ने स्वयं विग्रह सेवा के बारे में विस्तार से बताया है। ये पूरा की पूरा अध्याय ही विग्रह सेवा पर आधारित है। हालांकि विग्रह सेवा बिलकुल आवश्यक तो नहीं है, लेकिन भक्तों के लिए बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि भगवान भागवत महापुराण में स्वयं बता रहे हैं कि विग्रह जिसे अज्ञानी लोग मूर्ति कहते हैं, उसके स्थान पर भगवान उपस्थित होते हैं। बस ये आपकी आस्था और भक्ति पर निर्भर करता है। मीरा, तुलसीदास, हरिदास जैसे कई भक्तों को जप और विग्रह सेवा करते हुए ही भगवान प्राप्त हुए हैं। कुछ लोग गलत प्रकार से भी विग्रह सेवा करते हैं, जैसे शनिदेव पे तेल चढ़ाना भैरों बाबा पे शराब चढ़ाना, माता काली पर मांस चढ़ाना आदि। ऐसे कार्य मूर्ति पूजा ही कहलाते हैं, जो बिल्कुल गलत है। उसके इलावा कुछ लोग साई बाबा जैसे लोगों की भी विग्रह सेवा करते हैं, ये भी मूर्ति पूजा ही कहलाती है। विग्रह सेवा केवल भगवान की और अपने प्रामाणिक सिद्ध गुरु की करी जानी चाहिए, तभी वो ठीक मानी जाएगी।


शाहिदा : अगर केवल कृष्ण की ही पूजा करी जाएगी, तो ऐसे में क्या दूसरे देवी-देवता बुरा नहीं मान जायेंगे? 


वेदांत : सभी देवी-देवताओं को शक्ति कृष्ण से ही प्राप्त होती है, इसलिए बुरा मानने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। लेकिन अगर अहंकार के कारण कोई देवी-देवता बुरा मान भी जाये, तब भी वो कृष्ण के भक्त का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। जैसे एक बार जब ब्रिज वासियों ने देवताओं के राजा ‘इंद्र’ की पूजा करना बंद कर दिया था, तब इंद्र उनसे नाराज़ हो गए और इंद्र ने उनको भयंकर बारिश करके कष्ट देने का प्रयास किया। उस समय भगवान कृष्ण ने स्वयं गोवर्धन पर्वत उठाकर ब्रिज वासियों की रक्षा करी थी। कृष्ण हमेशा अपने भक्त की रक्षा करते हैं। इसके विषय में उन्होंने भगवद गीता अध्याय 9 श्लोक 31 में कहा है कि “मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं हो सकता।” जब देवताओं के राजा तक कृष्ण भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, तब ये छोटे-मोटे गृह और देवी-देवता क्या ही कर सकते हैं?


शाहिदा : आपके अनुसार ‘कृष्ण' जो पूरे विश्व के स्वामी हैं, वो अपने आप में ही एक बहुत बड़ा दर्जा रखते हैं। फिर उनकी मूर्ति बनाकर उसे पूजना भगवान का अपमान करने के जैसा नहीं है?

वेदांत : अवश्य ही ये सच है कि भगवान भक्तों के लिए बहुत ऊँचा दर्जा रखते हैं। पर भक्ति का अर्थ भक्त और भगवान के बीच एक गहरा संबंध होता है। ये एक ऐसा संबंध है जिसे किसी भी दूसरे संबंधों से तोला भी नहीं जा सकता। भगवान भागवतम् में स्वयं कहते हैं क़ि ‘अहम् भक्त पराधिनो’ यानी मैं अपने सच्चे भक्त के अधीन हूँ। जितना जप भक्त भगवान का करते हैं उससे कई गुणा अधिक जप भगवान अपने भक्त का करते हैं। कृष्ण परम ईश्वर हैं और राधा-रानी कृष्ण की परम भक्तिन हैं, पर हमेशा कृष्ण के आगे राधा का नाम लगता है। राधा के पहले कभी कृष्ण का नाम नहीं लिया जा सकता, इसलिए हमेशा राधाकृष्ण कहा जाता है न कि कृष्णराधा। उसी प्रकार राम भगवान हैं और सीता माता उनकी परम भक्तिन हैं, फिर भी राम का नाम हमेशा माता सीता के बाद ही लिया जाता है। हालांकि मैं ये लीला केवल उदाहरण के लिए बता रहा हूँ  क्योंकि राधाकृष्ण और सीताराम एक ही तत्व है, अलग-अलग नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा केवल नारी का सम्मान करने के लिए ही किया जाता है। हाँ! ऐसा भी कहा जा सकता है, पर ये विषय पूर्ण रूप से नारी और नर का नहीं है। राधा और सीता के जैसे ही भक्त प्रह्लाद के पहले भी नरसिंह देव का नाम नहीं लिया जाता है, अधिकांश प्रह्लाद-नरसिंह कहकर ही एक साथ नाम लिया जाता है। भगवान और भक्त के संबंध में, हमारी इस संसार की दृष्टि से ये समझना बहुत कठिन हो जाता है कि भगवान कौन हैं, तथा भक्त कौन हैं? क्योंकि भगवान अपने भक्त के अधीन इतने अधिक हैं, जितने भक्त भी भगवान के अधीन नहीं हैं। उसके पीछे कारण ये है कि प्रेम तत्व को तो पूर्ण रूप से केवल भगवान ही जानते हैंना। शास्त्रों में एक शुद्ध भक्त का दर्जा देवी-देवताओं से भी बढ़कर माना गया है, क्योंकि भक्त कृष्ण के हृदय में निवास करते हैं। इसलिए भक्त को हमेशा उस विग्रह की सेवा करके प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिए। आप मूझे ये बताइये कि प्रेम को वास्तक में किस प्रकार से व्यक्त किया जाता है? 


शाहिदा : रोमांस, चुम्बन आदि?


वेदांत : बिलकुल नहीं। रोमांस, चुम्बन आदि तो केवल इस भौतिक शरीर को कुछ देर के लिए किसी दूसरे शरीर के द्वारा संतुष्ट करना का प्रयास होता है। और कई लोग तो उन लोगों के साथ भी ये कर लेते हैं, जिनसे प्रेम नहीं होता। प्रेम को वास्तव में सेवा के द्वारा ही व्यक्त किया जाता है। जिस सम्बन्ध में आपको ह्रदय से सेवा करने का भाव उत्पन्न नहीं हो रहा, ये समझ जाना चाहिए कि वो प्रेम का सम्बन्ध नहीं है। भक्त लोग कृष्ण से सच्चा प्रेम करते हैं, इसलिए वो कृष्ण की सेवा करना चाहते हैं। इसलिए हम विग्रह बनाकर, उनकी सेवा करके अपना प्रेम व्यक्त करते हैं। 


शाहिदा : शिवलिंग पर दूध चढ़ाना कैसा है? क्योंकि बॉलीवुड में ऐसी कईं फ़िल्में बनी हैं, जिसमें सिखाया गया है कि शिवलिंग पर दूध चढ़ाकार दूध को बर्बाद नहीं करना चाहिए। बल्कि वो दूध किसी दरिद्र, भूखे व्यक्ति को देदेना चाहिए। 


वेदांत : मैंने कभी शिवलिंग पर दूध नहीं चढ़ाया और दूध तो मैं पीने के लिए भी मना करता हूँ, क्योंकि उसमें भयंकर हिंसा शामिल होती है। शिवलिंग पर दूध चढ़ाने के स्थान पर बेलपत्र, गंगाजल या सामान्य शुद्ध जल चढ़ाना चाहिए। लेकिन बॉलीवुड वालों को कोई अधिकार नहीं ये सिखाने का। दूसरों को क्या अधिकार कि वो भगवान की सेवा करने वाले भक्तों को ऐसा मूर्खता से भरा तर्क दें? 


शाहिदा : पर इससे दूध की बर्बादी तो होती है।


वेदांत : कृष्ण ने भगवद गीता अध्याय 9 श्लोक 26 में बताया है कि उनको भेंट के रूप में पत्ता, फूल, फल और जल अर्पित करना चाहिए। तो जब हम कृष्ण के मंदिर जाते हैं तब अधिकांश फूलों को अर्पित करते हैं। आजकल फूल मुफ्त में तो मिलते नहीं, वो फूल भी हम धन से खरीदते हैं। उदाहरण के लिए मान लीजिये कि हम 20 - 30 रूपए के फूल खरीदकर कृष्ण के विग्रह को अर्पित करते हैं। ऐसे ही शिवलिंग पर भी तो 20 - 30 रूपए का दूध ही चढ़ाया जाता है। फिर इन दोनों में अंतर क्या रह गया? क्या आप नहीं जानते कि इस प्रकार की सेवा से कितने लोगों का घर चलता है? तुम मुसलमान लोग जब सऊदी अरब देश ‘हज’ करने जाते हो, तो उसमें कम से कम कितना धन खर्च होता है? 


शाहिदा : एक व्यक्ति का कम से कम 1 से 10 लाख रूपए। और कोई बड़ा प्रसिद्ध व्यक्ति जाए तब तो करोड़ो रूपए खर्च होते हैं। 


वेदांत : तो वो धन की बर्बादी नहीं है? एक देश से दूसरे देश आध्यात्मिक अभ्यास करने जाने की क्या आवश्यकता है? लेकिन बॉलीवुड वालों ने हज करने को धन की बर्बादी क्यों नहीं कहा? 20 - 30 रूपए का दूध शिवलिंग पर चढ़ाने में उन्हें बहुत कष्ट होता है, पर उन्होंने ये क्यों नहीं सिखाया कि मुसलमानों को हज पर लाखों-करोड़ो धन बर्बाद नहीं करना चाहिए, बल्कि वो किसी दरिद्र व्यक्ति को देदेना चाहिए? क्योंकि उनको पता है कि ऐसा बोलने पर कट्टर मुसलमान लोग उनको जीवित जला देंगे। अगर शिवलिंग पर दूध चढ़ाने से धन बर्बाद होता है, फिर ऐसे तो हमें कोई निजी कार्य नहीं करना चाहिए, फ़िल्म देखने नहीं जाना चाहिए, कही घूमने नहीं जाना चाहिए, कोई रैस्टॉरेंट नहीं जाना चाहिए। ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिसमें धन खर्च करने की बहुत अधिक आवश्यकता न हो, और वो धन किसी दरिद्र को देदेना चाहिए। हर विषय में ऐसे मूर्खों वाले तर्क डालना उचित नहीं है।


शाहिदा : हाँ मैं समझ गयी। आप बिलकुल सही बोल रहे हो, और ये बॉलीवुड वाले लोग केवल हिन्दुओं की आस्था को ठेस पहुंचाना चाहते हैं। क्योंकि उनको पता है कि हिन्दू धर्म में अपने निजी तर्क और राये देने की पूरी अनुमति है। इसलिए वो अपने मलीन विचार दूसरों पर थोपने के लिए ऐसी फ़िल्में बनाते हैं।


वेदांत : क्योंकि स्पष्ट है बॉलीवुड में सब नशेड़ी, गांजा-शराब पीने वाले भोगो में रमे हुए लोग भरे हुए हैं, तो उनसे समझदारी की अपेक्षा रखना मूर्खता होगी