(छठा विषय)

कृष्ण का निराकार रूप



शाहिदा : कई हिंदुओं के अनुसार ही ईश्वर निराकार हैं, यानी ईश्वर की कोई प्रतिमा या रूप नहीं है, इसपर आप क्या कहेंगे? और आपके वेदों में भी ये कहा गया है कि ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं है। शायद यजुर्वेद में ऐसा बताया गया है।


वेदांत : बिल्कुल। यजुर्वेद भाग 32 मंत्र 3 में कहा गया है “जिस परमात्मा की महिमा का वर्णन हिरण्यगर्भः यस्मान्न जात: तथा मा मा हिंसात' आदि मंत्रों में किया गया है, जिसका नाम और यश बहुत बड़ा है, लेकिन उसकी कोई प्रतिमा नहीं है।” यहाँ  स्पष्ट रूप से कहा जा रहा है कि परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है। इसलिए इस मंत्र को पढ़ने वाले लोग अक्सर उलझ जाते हैं। पर वास्तव में ये मंत्र भी कृष्ण के लिए ही कहा गया है।


शाहिदा : पर कैसे? क्योंकि कृष्ण तो साकार हैं, यानी उनकी तो प्रतिमा है। फिर ये मंत्र कृष्ण के लिए कैसे कहा जा सकता है? 


वेदांत : आप शायद भूल रहे हो कि कृष्ण सर्वशक्तिमान हैं। भगवद गीता के अध्याय 11 में अर्जुन भगवान कृष्ण से कहते हैं कि वो भगवान का विराट विश्वरूप देखना चाहते हैं और उन्हें भगवान अपना विराट विश्वरूप दिखा भी देते हैं। उस रूप में एक साथ ही पूरा ब्रह्मांड दिख रहा था। स्वर्ग, नरक, जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म, हज़ारों-लाखों हाथ पैर, मुँह, पेट, आंखें, सारे देवीदेवता, देवदूत, यमदूत, भूत, वर्तमान, भविष्य। शिव, ब्रह्मा, यानी विश्व में जो कुछ भी मौजूद है, सबकुछ भगवान के विराट विश्व रूप में एक ही स्थान पर दिख रहा था। और इसी विश्व रूप को ही वेदों में निराकार ब्रह्म या परमात्मा कहा गया है, क्योंकि इस रूप की कोई सीमित प्रतिमा नहीं है। विराट रूप को ‘काल’ भी कहा जाता है और काल का अर्थ होता है ‘समय’, जिसके संचालनकर्ता शिवजी हैं। यजुर्वेद 32.3 के अगले मंत्र, मंत्र 4 में ऐसा ही बताया गया है। इसमें कहा गया है क़ि “परमात्मा अकेले ही सभी भुवनों में उपस्थित हैं, उनसे पहले कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ, वो प्रजा के साथ रहने वाले प्रजापति सोलह कलाओं से युक्त तीनों ज्योतियों को धारण करते हैं।” और शायद आप जानते ही होंगे क़ि सोलह कलाओं से युक्त केवल भगवान कृष्ण को ही कहा जाता है। अब निराकार ईश्वर की बात हो रही है तो मैं आपकी जानकारी के लिए, इस्लाम में ईश्वर की संकल्पना को भी थोड़ा स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। आप सामान्य मुसलमान लोग ये मानते हो कि अल्लाह निराकार है, लेकिन इस्लाम में निराकार ईश्वर जैसा कोई विषय ही नहीं है। ऐसी एक भी आयत या हदीस नहीं है, जो ये सिद्ध करती हो कि अल्लाह का कोई रूप नहीं है।


शाहिदा : पर मौलवीयों के अनुसार इस्लाम में तो अल्लाह की प्रतिमा या रूप के विषय में कुछ नहीं बताया गया है।


वेदांत : अगर आप इस्लाम को ठीक प्रकार से ढोंगी मौलवीयों की बातों से लगे अंधविश्वास के चक्षु हटाकर पढ़ोगे तो जान पाओगे, कि इस्लाम में ईश्वर यानी अल्लाह की प्रतिमा है। उदाहरण के लिए क़ुरान सुरह 20 आयत 5 में कहा गया है कि अल्लाह कुर्सी पर बैठे हैं। जो कुर्सी पर हैं, वो निराकार कैसे हो सकते हैं? यही बात सुरह 10 आयत 3, और कई अन्य जगहों पर भी कही गयी है। सुरह 39 आयत 67 में कहा गया है कि प्रलय के दिन आकाश अल्लाह के दाहिने हाथ में लिपटे होंगे।


शाहिदा : मौलानाओं के अनुसार ये केवल रूपक या मैटाफॉर है। रूपक उसे कहते हैं जो बात केवल सरल भाषा में समझाने के लिए कही जाए।


वेदांत : चलो तो फिर मैं आपको कुछ अन्य उदाहरण देता हूँ, जिसे मौलाना लोग भ्रमित करने के लिए रूपक भी नहीं कह सकते। पुस्तक ‘साहीह मुस्लिम’ की हदीस 2612e में मुहम्मद कहते हैं कि “कोई भी जब अपने भाई से लड़े तो चेहरे का बचाव करें। क्योंकि आदम (जो कि विश्व के सबसे पहले मनुष्य हैं ईसाइयत और इस्लाम आदि अब्राहमिक मज़हबों के अनुसार) को अल्लाह ने अपने स्वयंके जैसा दिखने वाला बनाया है।” इस हदीस को आप किसी भी प्रकार से रूपक सिद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें चेहरे शब्द का भी स्पष्ट वर्णन है। पुस्तक ‘मिश्क़त अल मसाबीह’ की हदीस 748 में तो अल्लाह के हाथ और उंगलियों तक के बारे में साफ-साफ बताया गया है।


शाहिदा : यानी ईश्वर भी हम मनुष्यों के जैसे ही दिखते हैं? 


वेदांत : क्या आपके माता-पिता आपके जैसे दिखते हैं?


शाहिदा : मेरे माता-पिता मेरे जैसे नहीं दिखते, बल्कि मैं उनके जैसी दिखती हूँ।


वेदांत : इसी प्रकार ईश्वर मनुष्य जैसे नहीं, बल्कि मनुष्य थोड़े से ईश्वर जैसे दिखते हैं। हालांकि कृष्ण का रूप तो दिव्य है उनके जैसा कोई नहीं हो सकता, यहाँ मैं मनुष्य रूप के आकार की बात कर रहा हूँ।


शाहिदा : अवश्य ही आपको इस्लाम और सभी मज़हबों के विषय में बहुत अधिक और सटीक जानकारी प्राप्त है। पर इस विषय पर मेरा एक प्रश्न है, क़ि सनातन धर्म में ईश्वर या कृष्ण के जिस निराकार रूप के बारे में बताया गया है, क्या उसका ध्यान करना अनुचित है?


वेदांत : अनुचित तो नहीं, पर भगवान ने भगवद गीता के 12वे अध्याय की शुरुवात में, अपने निराकार रूप से अधिक साकार रूप को उत्तम बताया है। इसका कारण ये है कि जो भगवान के निराकार रूप की भक्ति करेगा, वो वास्तव में भक्ति कर ही नहीं पायेगा। क्योंकि किसी की भक्ति करने के लिए गुणों और कथाओं की आवश्यकता भी होती है, बिना गुण और कथा वाले की भक्ति करना तो मूर्खता है। जब किसी में गुण होंगे ही नहीं तो उसकी भक्ति हम कैसे कर सकते हैं? इसलिए भगवान के केवल निराकार रूप को पूजना नासमझी ही है - ऐसा मेरा मानना है। मूर्तिपूजा ठीक नहीं है! पर जो व्यक्ति ‘विग्रह सेवा' को समझ जाएगा तो वो मूर्तिपूजा और विग्रह सेवा में साफ-साफ अंतर देख पायेगा। जिस व्यक्ति को मूर्ति दिखती है वो असल में भक्ति नहीं करता, और जो वास्तव में भक्ति करता है उसे कृष्ण के सिवा कोई नहीं दिखता।


शाहिदा : पर ये शिवलिंग क्या होता है?


वेदांत : भगवान शिव - कृष्ण के ही विस्तार स्वरुप हैं। कृष्ण और शिव में कोई अंतर नहीं। एक प्रकार से भगवान कृष्ण के काल या विराट विश्व रूप को ही शिवलिंग कहा जाता है। शिव पुराण के अनुसार शिवलिंग शिव के निराकार रूप का प्रतीक है। ऐसा अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ का मानना भी है, कि इस ब्रह्माण्ड का आकर थोड़ा शिवलिंग के जैसा है। शिवलिंग का ऊपर वाला भाग ब्रह्माण्ड का आकर है, और निचे से शिवलिंग एक दिये या दीपक के जैसा होता है। इसलिए जब आप शिवलिंग को ध्यान से देखोगे, तो आपको वो ‘ज्योत’ जैसा लगेगा। शिवलिंग को आप अज्ञानता और भ्रम मिटाने की ज्योत या चिराग भी कह सकते हो।