(साँतवा विषय)

ईश्वर के दर्शन 



शाहिदा : लेकिन हर मूर्ति भी तो बिल्कुल कृष्ण के जैसे नहीं दिख सकती। 


वेदांत : जब कृष्ण ने स्वयं कह दिया कि जिस स्थान पर भी मेरा विग्रह बनाया जाता है, भले ही वो किसी भी प्रकार का हो, लेकिन वो मैं ही हूँ - ऐसा मानना चाहिए। तो फिर संदेह किस बात का? और वैसे भी शास्त्रों में कृष्ण के रूप के विषय में विस्तार से बताया गया है। आठ प्रकार की धातुओं में से किसी एक से भगवान के विग्रह को बनाया जाता है। फिर उनकी पूजा करके ये सिद्ध किया जाता है कि वो कोई मूर्ति नहीं बल्कि भगवान ही-हैं। क्योंकि भगवान तो भक्त के लिए हर स्थान पर उपस्थित रहने के लिए तैयार हैं। केवल हमारी भौतिक आंखों से उन्हें देखा नहीं जा सकता है, क्योंकि हम अभी भक्ति में उतने विकसित नहीं हुए हैं। भगवान के दर्शन करने के लिए हमें भौतिक आंखों को पूर्ण रूप से छोड़ना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि कलयुग में भगवान के दर्शन बिलकुल ही नहीं होते हैं। हालांकि हमारी आँखें इस योग्य तो नहीं हैं कि हम भगवान को देख पाएं, क्योंकि हम लोग ‘काम’ यानि ‘हवस’, ‘क्रोध’ यानी ‘गुस्सा’, ‘लोभ’ यानि ‘लालच’ और ‘मोह’ यानी ‘अतिआसक्ति’ आदि जैसे विकारों से भरे हुए हैं। लेकिन जब हम भगवान की पूजा करने के स्थान पर भक्ति करने लगेंगे, और कर्तव्य मानकर आरती, जप और साधना करने के स्थान पर अगर हम ह्रदय से केवल उनके दर्शन मांगने लगेंगे। हमेशा रो-रोकर भगवान से कहने लगेंगे कि हे कृष्ण हमें केवल और केवल आपका दर्शन तथा प्रेम चाहिए, और संसार में कुछ भी नहीं चाहिए हमें आपके दर्शन और प्रेम के सिवा। तो इतना ध्यान रखो कि भगवान चाहें तो कभी भी आपको दिव्य नेत्र देकर, अपने दिव्य स्वरुप के दर्शन करवा सकते हैं। जैसे एक बार गर्ग संहिता के अनुसार भगवान कृष्ण के विस्तार स्वरुप श्रीविष्णु, देवताओं को लेकर अपने वैकुंठ धाम से गोलोक वृन्दावन की ओर गए। गोलोक के पास पहुँचते ही उन्हें एक तेज यानी प्रकाश दिखाई दिया। स्वर्ग के देवता लोग भी उस तेज को सहन नहीं कर पाए और उनकी आँखें चौंधिया गयी। जब वो दृश्य देखकर देवताओं की हालत बहुत बिगड़ने लगी, तो उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना करी और स्तुति करके भगवान को प्रसन्न किया। तब भगवान ने उनको दिव्य दृष्टि दी, जिससे वो गोलोक के दर्शन कर पाएं। यानी देवताओं की भी इतनी क्षमता नहीं है कि वो स्वयं की इच्छा से भगवान या भगवान के धाम के दर्शन कर पाएं। पर अगर भगवान चाहें तो कुछ भी हो सकता है। जैसे भगवद गीता अध्याय 11 में अर्जुन ने भगवान के विराट विश्वरूप के दर्शन करने चाहे, तो भगवान ने कहा कि “तू उसे अपनी इन भौतिक आँखों से नहीं देख सकता, इसलिए मैं तुझे दिव्य नेत्र देता हूँ।” आपकी क़ुरान के अनुसार एक बार पैग़म्बर ‘मूसा’ ने भी अल्लाह से उनके दर्शन करने की इच्छा करी थी।


शाहिदा : हाँ मैं जानती हूँ। अल्लाह ने मूसा के लिए अपना रूप एक पहाड़ के ऊपर दिखाया था। मूसा ने जैसे ही उस पहाड़ को देखा तो वो बेहोश हो गए। 


वेदांत : ऐसा इसलिए क्योंकि शायद अल्लाह मूसा को दिव्य नेत्र देना ही भूल गए थे।


शाहिदा : नहीं! इसपर कहा जाता है कि अल्लाह का रूप ही इतना शक्तिशाली है, कि पृथ्वी में कोई उसे सहन ही नहीं कर सकता। 


वेदांत : अगर वास्तव में ऐसा होता, तब तो वो पहाड़ ही टूट के चूरा-चूर होजाना चाहिए था शक्ति के कारण।

 

शाहिदा : हाँ ये भी ठीक बात ही है। तो हम ये कैसे जान सकते हैं कि किस व्यक्ति को भगवान के दर्शन वास्तव में प्राप्त हुए हैं।


वेदांत : जिन्हें दर्शन होते हैं वो स्वयं कभी नहीं बताते इस बारे में। दर्शन होने पर भी इस विषय को हमेशा गुप्त रखा जाता है। चाहे दर्शन सपने में हों या वास्तव में, किसी को भी उसके बारे में नहीं बताना चाहिए। क्योंकि इस विषय को बताने से अहंकार में वृद्धि होती है। लेकिन जिस भक्त को देखते ही आपका मन भक्तिमय होजाये। जिस व्यक्ति के दर्शन करके अद्भुत संतुष्टि का अनुभव होने लगे, समझ लेना कि वो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। और शायद ऐसे व्यक्ति को वास्तव में भगवान के दर्शन प्राप्त हुए हैं। एक भक्त के लिए सबसे अधिक आनंद की बात यही होती है कि भगवान उसकी सेवा को स्वीकार करें। भगवान की सेवा में और लीलाओं में भाग लेने के लिए ही कई भक्त निरंतर घोर तपस्या करते हैं। जब हम भगवान को भोग लगाते हैं तो भगवान उस भोग को स्वीकार करते हैं, हमारे लिए यही सबसे ऊँचे स्तर की प्रसन्नता है। कई लोगों को विग्रह सेवा के द्वारा भगवान के दर्शन, भोजन का ‘भोग’ लगाते समय ही प्राप्त होते है। 


शाहिदा : भगवान को खाने का भोग लगाने की क्या आवश्यकता है? हम पूरे विश्व के स्वामी भगवान कृष्ण की मूर्ति या विग्रह के आगे खाना रख देते हैं, तो ऐसी भक्ति से क्या लाभ? 


वेदांत : आप भक्ति में लाभ को जोड़कर भक्ति शब्द को दूषित कर रहे हो। भक्ति में लाभ या हानि नहीं, केवल और केवल भक्ति होती है। भगवान कृष्ण को खाने की तो कोई आवश्यकता नहीं है, पर कृष्ण हमारे लिए सबसे विशेष व्यक्ति हैं। भक्त के लिए सबसे अधिक आवश्यक भगवान हैं। हाँ! माता-पिता का दर्जा भी भगवान जितना बड़ा और महान ही है, लेकिन वास्तव में हमारे माता-पिता भी तो कृष्ण के ही अंश हैं। कृष्ण हमारे स्वामी तो हैं, पर वो हमारे सबसे विशेष संबंधी भी हैं। उनके साथ हमारा जैसा संबंध है वैसा किसी भी अन्य के साथ नहीं है। यही सोचकर घर का सबसे विशेष सदस्य जानकर उनके विग्रह के आगे सबसे पहले उनको ही भोग लगाया जाता है। क्या आप नृत्य करते हो? 


शाहिदा : इस्लाम में नृत्य करना हराम यानि अवैध है, लेकिन फिर भी मैं अपने माता पिता और बाकी परिजनों से छुपकर नृत्य करती हूँ।


वेदांत : आप नृत्य क्यों करते हो? क्या नृत्य करना आवश्यक है? 


शाहिदा : आवश्यक तो नहीं है, बस आनंद आता है इसलिए करती हूँ।


वेदांत : ऐसे ही भोजन भोग आदि के द्वारा भगवान की विग्रह सेवा करने में शुद्ध भक्त को आनंद आता है। हर कार्य केवल आवश्यकता के लिए ही नहीं होता। भगवान को भोग लगाने से वो भोजन ‘प्रसाद' बन जाता है, और सच्चे दिल से जिस भोजन को विग्रह के आगे भोग लगाया जाता है, उस प्रसाद को खाने वाले व्यक्ति के विचार भी अपने आप ही शुद्ध होने लगते हैं। पर विग्रह सेवा के रहस्य को समझना, प्रेम तत्व के रहस्य को समझे बिना असंभव है। दूसरे देवी-देवताओं की विग्रह सेवा भी कुछ हद तक उचित तो है, लेकिन ध्यान रखें कि कृष्ण यानी विष्णु तत्व या शिव तत्व के सिवा कोई भी हर स्थान पर एक साथ उपस्थित रहने में समर्थ नहीं है। बाकी देवी-देवता अपने करोड़ो विग्रहों की पूजाओं को एक साथ देख अवश्य सकते हैं, पर वहाँ उपस्थित नहीं होते हैं।