(चौथा भाग)
कर्म में पूर्णता, भक्ति की ओर यात्रा और आत्मबोध का आरंभ
इस भाग में गीता का चिंतन अत्यंत गूढ़ और गहन हो जाता है। अब चर्चा होती है कि जब मनुष्य अपने स्वधर्म को श्रद्धा और निष्ठा से करता है, तो वही कर्म एक दिन उसे मोक्ष की ओर ले जाता है। लेकिन इसका रहस्य यही है कि वह कर्म तभी फलदायक होता है जब वह ईश्वर को अर्पित भाव से किया जाए।
यहाँ गीता यह संदेश देती है कि व्यक्ति अगर अपना काम, चाहे वह कोई भी क्यों न हो, ईश्वर को समर्पित भाव से करे तो उसी कार्य से सिद्धि प्राप्त हो सकती है। यानी तुम्हारा धर्म तुम्हारे कार्य में छिपा है — किसी मठ में, किसी जंगल में, या किसी अलग तपस्या में नहीं।
उदाहरण के लिए अगर एक कृषक खेत जोतते समय भी यह भाव रखे कि “मैं यह अन्न सबको खिलाने के लिए उगा रहा हूँ, प्रभु का यज्ञ चलाने के लिए कर रहा हूँ”, तो वही हल चलाना उसके लिए साधना बन जाती है।
यह जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है — कर्म योग से भक्ति योग में प्रवेश। कर्म को जब तक फल की अपेक्षा से किया जाता है, वह बाँधता है। लेकिन जब कर्म को सिर्फ कर्तव्य मानकर किया जाता है, और वह भी ईश्वर को समर्पित करके, तो वही मोक्ष का कारण बनता है।
किसी भी कर्म को पूर्णता तक ले जाने के लिए उसमें समर्पण, निष्ठा और भक्ति का समावेश होना चाहिए। इसका तात्पर्य ये है कि कर्म सिर्फ बाह्य रूप से करने की चीज़ नहीं, बल्कि उसके पीछे की भावना सबसे महत्वपूर्ण है।
एक कुम्हार अगर मिट्टी के बर्तन बनाते समय उसमें सुंदरता, सेवा, और समाज हित का भाव रखता है, तो वह भी एक योगी बन जाता है। और एक साधु अगर सेवा के नाम पर समाज से धन एकत्र करे, दिखावा करे, तो उसका कर्म बंधन का कारण बनता है।
इसलिए गीता बार-बार इस बात को पुष्ट करती है कि कर्म की पवित्रता, उसकी सच्चाई, और उसका उद्देश्य — ये ही तय करते हैं कि वह मोक्ष देगा या बंधन।
जब कोई व्यक्ति निरंतर निःस्वार्थ कर्म करते हुए एक दिन पूरी तरह से अपने मन, बुद्धि और आत्मा को शुद्ध कर लेता है — तब वह उस अवस्था में पहुँचता है जहाँ वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है।
ब्रह्म का अर्थ है — शाश्वत सत्य, असीम चेतना, अपरिवर्तनीय परम सत्ता। जब व्यक्ति जानता है कि "मैं न यह शरीर हूँ, न मन हूँ, न बुद्धि हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ जो उस परम चेतना से जुड़ी है" — तब वह वास्तव में ब्रह्म को जानता है।
लेकिन यह अवस्था अचानक नहीं आती। यह तब आती है जब व्यक्ति...
कर्म करता है लेकिन फल की अपेक्षा नहीं रखता।
सेवा करता है लेकिन अहंकार से नहीं।
त्याग करता है लेकिन दिखावे से नहीं।
जैसे नदी धीरे-धीरे समुद्र में समा जाती है, वैसे ही कर्म, ध्यान, सेवा और भक्ति की धाराएँ धीरे-धीरे आत्मा को ब्रह्म में विलीन कर देती हैं।
ब्रह्म को जानने के लिए सिर्फ तर्क, बुद्धि या अध्ययन पर्याप्त नहीं है। उसके लिए ज़रूरी है — वैराग्य और श्रद्धा।
वैराग्य का अर्थ है — अंदर से संसार के आकर्षण को त्यागना। इसका यह मतलब नहीं कि व्यक्ति वस्त्र त्याग दे या घर छोड़ दे। बल्कि यह भाव भीतर आना चाहिए कि “जो कुछ भी हो रहा है, वह क्षणिक है, और मेरा लक्ष्य इससे परे है।”
श्रद्धा का अर्थ है — पूर्ण विश्वास। विश्वास कि ईश्वर हैं, वह सब देख रहे हैं, और वह तुम्हारे कर्मों का फल निश्चित रूप से देंगे। श्रद्धा वह शक्ति है जो साधक को डगमगाने नहीं देती।
जब ये दोनों गुण — वैराग्य और श्रद्धा, कर्म में आ जाते हैं, तब कर्म साधना बनता है। और फिर आत्मा धीरे-धीरे अपने असली स्वरूप को पहचानने लगती है।
भले ही कोई कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले, कितनी भी साधना कर ले, लेकिन जब तक उसमें प्रेम और भक्ति नहीं है, तब तक वह परम लक्ष्य को नहीं पा सकता।
यहाँ स्पष्ट कहा गया है — कि जब मनुष्य सम्पूर्ण मन, बुद्धि और हृदय से ईश्वर की भक्ति करता है, तब ही वह वास्तव में उन्हें जान सकता है। यह जानना भी कोई शाब्दिक ज्ञान नहीं होता, बल्कि अनुभव होता है।
भागवत में यह बार-बार कहा गया है — "भक्तियोग ही परम गति है।" चाहे ध्रुव की भक्ति हो, प्रह्लाद की हो, गजेंद्र की हो या मीरा की — सबने यही सिद्ध किया कि भक्ति ही वह पुल है जो आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है।
यहाँ भक्ति का अर्थ सिर्फ पूजा-पाठ नहीं, बल्कि एक जीवित संबंध है — जैसे एक बच्चा अपनी माँ से प्रेम करता है, जैसे गोपियाँ कृष्ण से जुड़ी थीं, जैसे अर्जुन ने अपना सबकुछ कृष्ण को समर्पित कर दिया था।
जब व्यक्ति भक्ति में प्रवेश करता है, तो उसका हृदय निर्मल होता है। फिर उसके भीतर कोई द्वेष, लालच, भय, मोह या क्रोध नहीं रहता। उसका आचरण सरल, हृदय पवित्र और कर्म निष्कलंक हो जाते हैं।
यह अवस्था ही वास्तविक मुक्ति है — जहाँ शरीर चाहे जैसा हो, परिस्थिति कैसी भी हो — लेकिन भीतर सिर्फ शांति, प्रेम और भगवान की अनुभूति हो।
हर मनुष्य अपने ही कर्म से परम सिद्धि पा सकता है, अगर वह उसे समर्पण भाव से करे।
कर्म तब तक बंधन है जब तक उसमें अहंकार और अपेक्षा है।
लेकिन वही कर्म मोक्ष का द्वार बन जाता है, अगर उसमें श्रद्धा, सेवा और त्याग हो।
और जब यह सब होते हुए भक्ति आ जाए — तो साधक सीधे ईश्वर के हृदय में प्रवेश कर लेता है।
भक्ति ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है — और उसमें न जाति बाधा है, न अवस्था, न विद्या, न धन। सिर्फ एक पवित्र प्रेमपूर्ण भावना — और वही साधारण व्यक्ति को भी भगवान से जोड़ सकती है।