(पाँचवा भाग)

समर्पण, निष्कामता और परम शरणागति का उत्कर्ष मार्ग


जब साधक हर परिस्थिति में, हर कर्म में, हर विचार में, सिर्फ ईश्वर को देखना शुरू कर देता है, तब उसके जीवन की सारी जटिलताएँ मिटने लगती हैं। फिर चाहे वह कोई भी कर्म करे, वह बंधन का कारण नहीं बनता।

इसका अर्थ ये है कि जीवन के हर कार्य — भोजन, विश्राम, चलना, बोलना, व्यापार, सेवा — सब कुछ भगवान की भावना से किया जाए।

गौतम बुद्ध ने भी कहा था, “जो भी करो, पूर्ण सजगता और करुणा के साथ करो।” यही बात गीता में भी है — सजगता और ईश्वरभावना से किया गया कर्म, हमें बंधन से मुक्त करता है।

जब व्यक्ति सब कुछ भगवान पर छोड़ देता है, तो वह भयमुक्त हो जाता है। फिर उसे न असफलता का डर होता है, न मृत्यु की चिंता। क्यों? क्योंकि अब वह जान गया होता है कि “मैं नहीं कर रहा, जो हो रहा है, वह ईश्वर की योजना के अनुसार हो रहा है।”

ऐसा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी एक योगी बन जाता है। वह न तो किसी बात में फँसता है, न किसी स्थिति से उलझता है। उसका जीवन जल में कमल की तरह हो जाता है — जल में रहते हुए भी स्पर्शरहित।

भगवद गीता यही कहती है — कि जो व्यक्ति सब कुछ समर्पित करके कर्म करता है, वह सर्व कर्मों के फल से मुक्त हो जाता है। उसे किसी प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं, न किसी और साधना की। उसकी भक्ति ही उसकी सबसे बड़ी तपस्या बन जाती है।

यहाँ तक ज्ञान, विवेक और तर्क के माध्यम से ईश्वर को जानने की चर्चा हुई। लेकिन अब यह स्पष्ट कहा गया है कि ईश्वर को वास्तव में जानना सिर्फ प्रेम के द्वारा संभव है।

ज्ञान सिर्फ मार्ग है, लेकिन प्रेम वह सेतु है जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। श्रीमद्भागवत में भी यह बात आई है — कि रुक्मिणी, मीरा, गोपियाँ, प्रह्लाद — इन सबका ईश्वर से संबंध किसी विद्वता से नहीं बना, बल्कि भावनाओं की गहराई और समर्पण की सच्चाई से बना।

गोपियाँ किसी शास्त्र को नहीं जानती थीं, लेकिन वे पूर्ण ज्ञानस्वरूप कृष्ण को पूरी तरह जानती थीं, क्योंकि उनका प्रेम निष्कलंक था।

इसलिए गीता कहती है कि ईश्वर को सिर्फ वही जान पाता है, जो उन्हें प्रेम से भजता है। जब प्रेम निष्कलंक होता है, तब भगवान स्वयं उस आत्मा को अपना स्वरूप दिखाते हैं।

गीता के अध्यात्मिकदेवता 18 श्लोक 16 में अर्जुन को, और उसके माध्यम से सम्पूर्ण मानवता को, एक अंतिम आदेश दिया जाता है — “सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ”

इसका अर्थ ये नहीं कि कोई अपने कर्तव्यों को छोड़ दे। इसका तात्पर्य ये है कि जो भी करो, उसमें मेरी (कृष्ण की) ही शरण लो। उस भाव में जियो कि “मैं कुछ नहीं हूँ, सब कुछ प्रभु हैं।” यहाँ पर ये भी स्पष्ट होता है कि सिर्फ कृष्ण ही परम् ईश्वर हैं, और केवल सिर्फ उनकी ही भक्ति की जानी चाहिए।

ये स्थिति भक्ति की पराकाष्ठा है। यही वह अवस्था है जहाँ मनुष्य वास्तव में मुक्त होता है।

यहाँ “सब धर्मों को त्यागने” की बात कोई बाह्य धर्म त्यागने की नहीं है। इसका अर्थ है — मानव द्वारा बनाए गए कर्मों के बंधन, अपेक्षाओं, और सामाजिक सीमाओं को त्यागना

यानी — जो कोई ये यह सोचता है कि “मैं इतना पूजा करता हूँ, इसलिए मुझे फल मिलेगा”, या “मैंने इतना दान दिया, इसलिए मैं महान हूँ”, — ये सब भाव छोड़ देने की बात है।

जब व्यक्ति अहंकार, स्वार्थ, गर्व और अधिकार की भावना से ऊपर उठता है, तब उसका धर्म वास्तविक होता है। फिर वह जो भी करता है — वह सेवा बन जाती है, वह तपस्या बन जाती है।

अगर कोई ईश्वर में पूर्ण विश्वास करता है, तो उसे किसी भय या चिंता की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर स्वयं उसे सारे पापों से मुक्त करेंगे। यहाँ पाप का अर्थ सिर्फ अपराध या अधर्म नहीं, बल्कि अज्ञान, मोह, और आत्मविस्मृति है। ईश्वर से जुड़ने पर व्यक्ति इन सबसे मुक्त हो जाता है।

यह वही भावना है जो गजेंद्र ने जब हाथ उठाकर प्रभु को पुकारा, तब उसने अनुभव किया। वह केवल एक शब्द बोला — “नारायण” — और सारा दुःख, सारा बंधन मिट गया।

यह भाग आत्मा और परमात्मा के बीच के सबसे सुंदर संवाद का दर्पण है — जहाँ सारे तर्क, सारे मार्ग, सारे साधन — अंततः प्रेम, भक्ति और समर्पण में समाहित हो जाते हैं।