(दूसरा भाग)
कर्म के तत्व, कर्ता की प्रकृति और बुद्धि का विवेक
इस भाग में गीता कर्म के और भी सूक्ष्म स्तर पर प्रवेश करती है। अब चर्चा सिर्फ त्याग की नहीं, बल्कि कर्म के निर्माण, उसके संचालक तत्वों, और कर्तृत्व के पीछे छिपे भावों की होती है। जो साधक यह समझ लेता है कि कर्म कैसे बनता है, कौन कर रहा है, और उसके परिणाम क्या होंगे — वही वास्तव में कर्म के पार जा सकता है।
इस विषय को गहराई से समझने के लिए सबसे पहले हमें जानना होगा कि कोई भी कर्म — चाहे वह छोटा हो या बड़ा, पांच तत्वों से मिलकर बनता है। यह पांच तत्व इस तरह से हैं :
स्थान – वह जगह या परिस्थिति जहाँ कर्म किया जा रहा है।
कर्ता – जो कर्म कर रहा है, यानी वह जीव जिसका संकल्प उस कर्म के पीछे है।
उपकरण या साधन – जैसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि जो कर्म के लिए प्रयोग हो रहे हैं।
विविध प्रकार के प्रयास – यानी उस कर्म को करने में जो श्रम या शक्ति लग रही है।
दैव – अर्थात परमात्मा की इच्छा, समय का संयोग, और अदृश्य कारक जो उस कर्म को सफल या असफल बनाते हैं।
इन पाँचों को समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि हम अक्सर कर्म का पूरा भार सिर्फ अपने ऊपर ले लेते हैं। जब कोई काम सफल हो जाता है, तो हम कहते हैं “ये मैंने किया।” और जब असफल हो जाता है, तो या तो खुद को कोसते हैं या दूसरों को दोष देते हैं। लेकिन गीता इस भ्रम को तोड़ती है। वो कहती है कि हर कर्म अनेक कारकों से बना होता है — इसलिए “मैं ही करता हूँ” का भाव अज्ञान का लक्षण है।
अब बात करते हैं ‘कर्ता’ की प्रकृति की। गीता यह स्पष्ट करती है कि ‘कर्तृत्व’ का अनुभव करने वाला व्यक्ति, यानी जो कहता है “मैं कर रहा हूँ”, वो वास्तव में गुणों के प्रभाव में फंसा हुआ है। प्रकृति के तीन गुण — सत, रज, और तम — हर जीव के भीतर क्रिया करते हैं, और वही हमें सोचने, चाहने, और करने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन जब जीव अपने शरीर, मन, बुद्धि को ही अपना स्वरूप मान लेता है, तब वह ‘कर्ता’ बन जाता है।
असल में आत्मा तो साक्षी मात्र है — वह केवल देखती है, अनुभव करती है, लेकिन करती कुछ नहीं। कर्म तो शरीर, मन और इन्द्रियों के स्तर पर होता है। जैसे कोई आदमी सपना देखता है और उसमें युद्ध करता है, दौड़ता है, डरता है — लेकिन वास्तव में वह बिस्तर पर ही होता है — वैसे ही आत्मा कुछ नहीं करती, सिर्फ प्रकृति के द्वारा प्रेरित कर्म को देखती है।
लेकिन यह बोध तभी आता है जब व्यक्ति में बुद्धि का विवेक जाग्रत होता है। गीता यहाँ बुद्धि के भी तीन प्रकार बताती है — सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
सात्त्विक बुद्धि वह होती है जो सही और गलत में, कर्तव्य और अकर्तव्य में, भय और अभय में, बंधन और मुक्ति में स्पष्ट भेद करना जानती है। यह बुद्धि जीवन को धर्म के चश्मे से देखती है। जैसे एक ब्राह्मण जिसने वेदों को पढ़ा है, लेकिन साथ ही जिसने उस ज्ञान को जीवन में उतारा है — वह जानता है कि हर कर्म का एक लक्ष्य होता है, और वह लक्ष्य है – कृष्ण भक्ति द्वारा आत्मा का शुद्धिकरण।
राजसिक बुद्धि वह होती है जो धर्म और अधर्म को पहचान नहीं पाती। वह उन चीजों को भी धर्म समझती है जो असल में मोह से प्रेरित हैं। उदाहरण के तौर पर — कोई व्यक्ति अपने पुत्र या मित्र के लिए गलत बात भी कर बैठता है। लेकिन असल में वह धर्म का उल्लंघन कर रहा होता है। यह मोहजनित विवेकहीनता है, जो राजसिक बुद्धि की पहचान है।
तामसिक बुद्धि सबसे भयंकर होती है। यह अधर्म को धर्म समझती है, असत्य को सत्य, अंधकार को प्रकाश और बंधन को मुक्ति। आज के युग में बहुत से लोग ऐसे हैं जो हिंसा को भी धर्म का नाम दे देते हैं, या स्वार्थ को ईश्वर-सेवा का मुखौटा पहना देते हैं — ये तामसिक बुद्धि के लक्षण हैं।
गहराई से देखने पर ये स्पष्ट होता है कि हमारे जीवन का दिशा निर्धारण बुद्धि ही करती है। अगर बुद्धि सही है, तो हम उचित कर्मों की ओर प्रेरित होंगे और हमारी आत्मा शुद्ध होगी। अगर बुद्धि ही भ्रांत है, तो कितना भी बड़ा ज्ञान क्यों न हो, उसका सही उपयोग नहीं होगा।
जैसे जड़भरत एक ऐसे महान आत्मज्ञानी थे जिन्होंने पूरे जीवन भर बुद्धिपूर्वक कर्म किया। उन्होंने बाहर से मूर्खों जैसा व्यवहार किया, किसी से बात नहीं की, लेकिन भीतर से उनका चित्त ईश्वर में लीन था। जब राजा रहुगण उनके पास आया, तो उन्होंने उसे गहराई से आत्मा और शरीर का भेद सिखाया — और कहा कि “कर्तृत्व का अहंकार सबसे बड़ा बंधन है।”
इस बोध को आत्मसात करने वाला व्यक्ति जान लेता है कि — मैं सिर्फ एक साक्षी हूँ, एक उपकरण हूँ। सच्चा कर्ता तो ईश्वर है, जो प्रकृति के माध्यम से हर जीव में क्रिया करता है। लेकिन जब जीव ये सोचता है कि “मैं कर रहा हूँ” — तब ही वह कर्म के फल में उलझता है।
यही कारण है कि गीता बार-बार चेतावनी देती है कि अपने आपको कर्ता मत मानो। ये भाव ही बंधन का कारण है। अगर व्यक्ति ये मान ले कि “मैं सिर्फ अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, ईश्वर की प्रेरणा से”, तो वह हर कर्म को पूजा बना सकता है। (हालांकि विग्रह सेवा और भक्ति योग का पालन करना ही वास्तविकता पूजा है)
कर्म के साथ-साथ गीता उस ‘भाव’ को भी महत्व देती है जिससे कर्म किया जाता है। किसी भी काम को करने में अगर अभिमान, क्रोध, ईर्ष्या, लालच या आसक्ति जुड़ी हो — तो वह कर्म भले ही बाहर से धर्ममय दिखे, भीतर से बंधन का कारण बन जाता है। वहीं एक साधारण-सा कर्म — जैसे किसी वृद्ध की मदद करना, भोजन बनाना, वृक्ष लगाना — अगर समर्पण और सेवा की भावना से किया जाए, तो वही कर्म जीवन को मुक्त कर सकता है।
यही कर्म-योग का मूल है — न कामना से किया गया कर्म, न डर से, बल्कि विवेक और सेवा से प्रेरित कर्म।
अब एक और गहरी बात आती है — बुद्धि के साथ ‘धृति’ यानी संकल्पशक्ति। बुद्धि ये निर्णय तो कर सकती है कि क्या सही है, लेकिन उस निर्णय पर स्थिर रहना धृति का कार्य है। अगर किसी ने जान लिया कि सत्संग ज़रूरी है, प्रभु का स्मरण करना लाभकारी है, संयम रखना उत्तम है — तो उसे इन बातों पर टिका रहना होगा। यही धृति है।
जो व्यक्ति सुख-दुःख, सफलता-विफलता, लाभ-हानि में डगमग नहीं होता — वही सच्चा साधक है। उसे बार-बार अपने निर्णय नहीं बदलने चाहिए। यह निश्चय शक्ति यानी धृति सात्त्विक होती है। जबकि जो व्यक्ति हर बार परिस्थितियों के अनुसार अपने संकल्प को बदलता है — वो राजसिक या तामसिक धृति का शिकार होता है।
भागवत पुराण में अम्बरीष महाराज का उदाहरण आता है — जिनका मन, वचन और कर्म तीनों हर समय भगवान में लीन रहते थे। एक बार दुर्वासा ऋषि ने उन्हें अपमानित करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने एक क्षण के लिए भी अपने संकल्प से विचलन नहीं किया — उनके भीतर सात्त्विक धृति का निवास था।
कर्म केवल करने से नहीं, उसकी भावना से मोक्ष मिलता है।
‘कर्ता’ का भाव ही बंधन की जड़ है।
बुद्धि अगर सात्त्विक है, तो वही जीवन की दिशा तय कर सकती है।
विवेक और धैर्य ही साधक की सबसे बड़ी संपत्ति है।
हर कर्म में ‘मैं’ को हटाकर, ‘प्रभु’ को स्थापित करने की कला ही मुक्ति का मार्ग है।