(पहला भाग)
संन्यास और त्याग का वास्तविक स्वरूप
अठारहवाँ अध्याय जीवन के उस अंतिम मोड़ की बात करता है जहाँ व्यक्ति विश्व की हर प्रक्रिया से ऊपर उठने की आकांक्षा करता है। उसे समझ आता है कि कर्म, भक्ति, ज्ञान — सबकी एक अंतिम परिणति है, और वह है – मोक्ष। लेकिन मोक्ष की ओर कदम बढ़ाने से पहले ये जानना ज़रूरी होता है कि त्याग क्या है, और संन्यास क्या है। ये दो शब्द जीवन की दिशा तय करते हैं।
बहुत से लोग ये मान लेते हैं कि संन्यास मतलब है – गृहस्थ जीवन छोड़ देना, जंगल में चले जाना, सब बंधनों से मुक्त होकर एकाकी हो जाना। लेकिन गीता के अनुसार, संन्यास का असली स्वरूप कुछ और है। असल संन्यास का संबंध मन की अवस्था से है, न कि शरीर की गतिविधियों से।
जब कोई व्यक्ति कामनाओं से प्रेरित कर्मों को छोड़ देता है — जैसे सिर्फ लाभ के लिए किया गया व्यापार, सिर्फ नाम या प्रसिद्धि पाने के लिए किया गया सेवा कार्य, सिर्फ वासना के लिए किया गया संबंध — तो ये त्यागना ही संन्यास है। मतलब, कार्यों को करना बंद नहीं किया गया, बल्कि उनके पीछे की आसक्ति और कामना का परित्याग किया गया। यही संन्यास की बुनियाद है।
वहीं त्याग का अर्थ है — कर्म तो करना, लेकिन उसके फल से जुड़ी अपेक्षा को छोड़ देना। जैसे कोई व्यक्ति किसी भूखे को खाना खिला रहा है, लेकिन वो उससे धन्यवाद, मान-सम्मान या पुण्य की आशा नहीं कर रहा — तो वह त्यागी है। उसका मन ये नहीं सोचता कि "मैंने कुछ किया, मुझे इसका कुछ मिलेगा।" बल्कि उसका मन सिर्फ एक माध्यम की तरह कार्य करता है — जैसा कि भागवत में भी वर्णन आता है, कि संतजन दूसरों की सेवा में स्वयं को उपकरण मानते हैं।
तो क्या सब काम छोड़ देना चाहिए? कुछ लोग मानते हैं कि हाँ — कर्म में हमेशा अहंकार, दुःख, या मोह जुड़ा रहता है, इसलिए कर्म ही बंधन का कारण है। लेकिन ये अधूरी समझ है। कर्म का त्याग तभी उचित है जब वो कर्म स्वार्थ, मोह, या भय से प्रेरित हो। लेकिन अगर वही कर्म कर्तव्य, सेवा और समर्पण के भाव से किया जाए, तो वही कर्म मोक्षदायी हो जाता है। यही गीता का रहस्य है — कर्म से भागो मत, कर्म के भाव को बदलो।
गीता तीन प्रकार के त्याग बताती है — सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। यह वर्गीकरण बहुत सूक्ष्म है और हर साधक को इसके अनुसार स्वयं की जांच करनी चाहिए।
तामसिक त्याग तब होता है जब कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य से सिर्फ मोह या अज्ञान के कारण भागता है। जैसे कोई व्यक्ति माँ-बाप की सेवा करना नहीं चाहता क्योंकि उसे लगता है कि ये बोझ है, या उसे अपनी स्वतंत्रता प्यारी है — तो ये त्याग नहीं, तामसिक प्रवृत्ति है। इसमें आत्मा की कोई उन्नति नहीं होती, बल्कि और पतन होता है।
राजसिक त्याग तब होता है जब कोई व्यक्ति ये सोचकर किसी काम को छोड़ देता है कि “इससे मुझे दुख होगा”, “मेरे शरीर को कष्ट होगा”, या “लोग मुझे क्या कहेंगे”। जैसे कोई कठिन सेवा इसलिए छोड़ दे क्योंकि उसमें आराम नहीं है, तो ये भी त्याग नहीं कहलाता। ये स्वार्थ से प्रेरित दूरी है।
सात्त्विक त्याग ही सच्चा त्याग है। इसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से करता है — लेकिन फल की कोई अपेक्षा नहीं रखता। वह अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करता है, ये मानकर कि वह सिर्फ एक माध्यम है। वह न अच्छे फल की आशा करता है, न बुरे फल से डरता है। यही निष्काम कर्म है, जिसकी शिक्षा पूरे गीता में दी गई है।
ये बात भागवत पुराण में भी एक कथा के माध्यम से आती है। राजा प्रियव्रत की कथा में बताया गया है कि कैसे वे भगवान की आज्ञा से गृहस्थ जीवन अपनाते हैं, राज्य चलाते हैं, सन्तानें उत्पन्न करते हैं — लेकिन उनका चित्त एक क्षण के लिए भी ईश्वर से विचलित नहीं होता। वे हर कर्म को भगवान की सेवा मानकर करते हैं। और अंत में वैराग्य पूर्वक सब छोड़कर वन चले जाते हैं। उनका जीवन ही गीता के सात्त्विक त्याग का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
इस भाग का एक और महत्वपूर्ण संदेश ये है कि — कर्म का पूरी तरह से त्याग इस देहधारी जीवन में संभव नहीं है। जब तक शरीर है, कुछ न कुछ करना पड़ेगा। भोजन, शौच, नींद, सेवा, व्यवहार — ये सब शरीर से जुड़े कर्म हैं। इसलिए कर्म से भागना समाधान नहीं है। समाधान है — कर्मों की भावना का शुद्धिकरण।
गीता हमें ये सिखाती है कि हम कर्म करें — लेकिन न तो उन कर्मों के फलों में आसक्त हों और न उनके फल से डरें। ऐसा करते हुए हम धीरे-धीरे अपने भीतर से मोह, अहंकार और स्वार्थ को त्याग सकते हैं।
एक और गहरी बात ये है कि त्याग सिर्फ बाह्य वस्तुओं का नहीं होता। असली त्याग अंदर होता है — जब हम अपने मन की वासनाओं, अपेक्षाओं, और अहंकार को छोड़ देते हैं। कई बार व्यक्ति बाहर से संन्यासी दिखता है — गेरुआ वस्त्र पहनता है, एकाकी रहता है — लेकिन उसका मन भरा होता है इच्छाओं से। वहीं, एक गृहस्थ जो पूरे परिवार के साथ रहकर अपने कर्तव्यों को निभाते हुए, बिना किसी फल की अपेक्षा के भगवान के लिए पुरे विश्व की सेवा कर रहा है — वो गीता के अनुसार सच्चा त्यागी और सच्चा संन्यासी है।
ये ज्ञान हमें भ्रम से निकालता है। क्योंकि अक्सर देखा गया है कि आधे-अधूरे ज्ञान से लोग कर्म से भाग जाते हैं। लेकिन जब वे आत्मा के कर्तव्य को नहीं निभाते, तो उनके भीतर और अधिक अशांति और असंतोष जन्म लेता है। गीता चाहती है कि हम कर्म करें — लेकिन उन कर्मों को ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भाव से मुक्त कर दें।
गृहस्थ जीवन में रहकर भी अगर कोई व्यक्ति निष्काम कर्म करता है, तो वो भी मोक्ष का अधिकारी होता है। भागवत में राजा जनक जैसे उदाहरण दिए गए हैं, जिन्होंने कर्म करते हुए भी आत्मज्ञान को प्राप्त किया। यही वजह है कि गीता बार-बार कहती है — कर्म को मत छोड़ो, कर्म में आसक्ति को छोड़ो।
संन्यास और त्याग बाहरी रूप नहीं, आंतरिक चेतना की अवस्थाएँ हैं।
हर कर्म को यज्ञ की तरह, सेवा की तरह किया जाना चाहिए।
त्याग का मतलब कर्म न करना नहीं, बल्कि कर्म करते हुए भी फल में मोह न रखना है।
सच्चा त्यागी वही है जो कर्म करता है लेकिन उसका अभिमान और फल की इच्छा नहीं रखता।