(साँतवा भाग)

अर्जुन का जागरण और गीता संवाद का महापरिणाम


अब गीता के इस महान संवाद का अंतिम क्षण आ चुका है। जहाँ से पूरी यात्रा शुरू हुई थी — मोह, शोक और संशय के अंधकार में डूबे अर्जुन से — वहाँ से अब अर्जुन पूर्ण रूप से जागरूक, निश्चयशील और आत्मिक रूप से सशक्त योद्धा बन चुके हैं। ये भाग न केवल अर्जुन की बात करता है, बल्कि हर उस साधक की स्थिति को दर्शाता है जो गीता को श्रद्धा से सुनकर अपने जीवन में परिवर्तन लाता है। गीता संवाद की शुरुआत में अर्जुन मोह में फँसे हुए थे। उनके भीतर कई भ्रम थे — जैसे कि क्या मुझे अपने ही स्वजनों को मारना चाहिए, क्या युद्ध करना धर्म है, क्या संन्यास बेहतर नहीं है? और इन सारे विचारों में उनका चित्त विचलित था।

लेकिन भगवान कृष्ण के श्लोकों की गहराई में डूबने के बाद अब उनका अज्ञान छूटा है। वह स्पष्ट रूप से कहते हैं — "मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है, और अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।"

इसका अर्थ यह है कि अर्जुन अब निर्णय कर चुके हैं — युद्ध करेंगे, लेकिन किसी राग, द्वेष या अहंकार से नहीं। अब वह एक निष्काम कर्मयोगी बन चुके हैं। उनकी दृष्टि अब केवल शरीर तक सीमित नहीं है — वह अपने आत्मस्वरूप को पहचान चुके हैं।

ये क्षण गीता का सार है। क्योंकि गीता का उद्देश्य किसी को हिंसा के लिए प्रेरित करना नहीं है, बल्कि उसके धर्मबोध को जागृत करना है। अर्जुन अब समझ चुके हैं कि यह युद्ध सिर्फ शरीरों का नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के बीच है, और उनका कर्तव्य इसमें स्पष्ट है।

इस भाग में केवल अर्जुन ही नहीं, बल्कि संवाद सुनाने वाले संजय का भी गहरा अनुभव सामने आता है। उन्होंने जो ये संवाद सुना — उसे केवल शब्दों से नहीं, बल्कि दिव्य दृष्टि से देखा और अनुभव किया।

ध्यान दीजिए कि संजय कुरु दरबार में बैठे हैं, लेकिन गीता संवाद युद्धभूमि में हो रहा है। और इसके बावजूद, संजय जैसे ही श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद कहते हैं, उनकी आत्मा पुलकित हो जाती है। उन्हें बार-बार इस संवाद को स्मरण करने में आनंद आता है।

इसका तात्पर्य यह है कि भगवान और भक्त का संवाद, जब श्रद्धा से सुना जाता है, तो केवल एक ज्ञान की सूचना नहीं देता — वह हृदय को रस से भर देता है।

गीता के शब्द कोई शुष्क तर्क नहीं हैं, बल्कि प्रेम और साक्षात्कार की सरिता हैं, जिसमें डूबकर साधक दिव्य आनंद को अनुभव करता है। संजय कहते हैं कि जब भी वह श्रीकृष्ण के उस दिव्य रूप को याद करते हैं जो उन्होंने अर्जुन को विराटस्वरूप के रूप में दिखाया था, तब-तब उनका मन आनंद से भर उठता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर के रूप, गुण और लीला का स्मरण जीवन को सुखमय और शुद्ध बनाता है। गीता केवल दर्शन नहीं है — यह भक्ति का गूढ़तम स्वरूप भी है।

वह विराट रूप केवल अर्जुन को ही नहीं, बल्कि संजय को, और आज हम सब को भी संकेत देता है कि भगवान केवल किसी एक व्यक्ति तक सीमित नहीं हैं — वे समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त हैं, और जो उन्हें देखना चाहता है, उसे अपनी दृष्टि को शुद्ध करना होगा।

संजय के अंत में जो शब्द आते हैं — वे अत्यंत प्रेरणादायक हैं: “जहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ अर्जुन जैसे भक्त हैं, वहाँ निश्चित रूप से विजय, समृद्धि, धर्म और नीति होती है।”

ये वाक्य केवल युद्ध भूमि की जीत का विवरण नहीं है। ये एक सार्वकालिक सत्य है: जहाँ ईश्वर और भक्त साथ होते हैं, वहाँ धर्म का विजय सुनिश्चित होता है।

जब जीव अपनी बुद्धि को समर्पण में बदल देता है, तब भगवान उसके साथ चलने लगते हैं, और जीवन का हर संग्राम — चाहे वो भीतरी हो या बाहरी — विजय की ओर ले जाता है।

यह अंतिम भाग हम सबको एक सीधी बात बताता है — कि अगर तुम जीवन में संशय से ग्रस्त हो, भ्रम में हो, अपने कर्तव्यों को लेकर उलझन में हो, तो गीता तुम्हें प्रकाश दे सकती है। लेकिन यह प्रकाश तभी मिलेगा जब :

आज का अर्जुन हर मनुष्य है। आज का कुरुक्षेत्र हर व्यक्ति का जीवन है, जहाँ उसके भीतर ही कौरव और पांडव के जैसे विचारों का संग्राम चलता है। और आज भी अगर श्रीकृष्ण को हम बुलाते हैं, उन्हें मन, बुद्धि और हृदय का रथ दे देते हैं, तो वे मार्गदर्शक बन जाते हैं।