(छठा भाग)

गूढ़ ज्ञान की रक्षा और सत्संग की महिमा


सम्पूर्ण ज्ञान अर्जुन को दिया गया है, यह केवल सुनने और कहने की वस्तु नहीं है, बल्कि एक ऐसा आध्यात्मिक रहस्य है, जिसे समझने, आत्मसात करने और फिर सही पात्र को ही देने की आवश्यकता है।

यह भाग उस बिंदु पर आता है जब गीता की पूरी शिक्षा समाप्त हो चुकी है और अब उसका संरक्षण, प्रचार और सम्मान कैसे किया जाए — इस पर ध्यान दिया जाता है। यह केवल उपदेश नहीं है, यह एक उत्तरदायित्व है। गीता का जो सार है, वो हर किसी को नहीं दिया जा सकता। यह सिर्फ उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो :

क्योंकि ये ज्ञान केवल जानकारी नहीं है — यह हृदय में उतरने वाला तत्व है। यह कोई मानसिक अभ्यास नहीं बल्कि आत्मिक अनुभव है। हालांकि ये ज्ञान सुनाना तो सबको चाहिए, पर अगर कोई इस ज्ञान को समझने में रूची न रखता हो, तो उसको ज़बरदस्ती समझाने में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये ज्ञान नास्तिक और मूर्खों को कभी समझ नहीं आने वाला।

अगर ये ज्ञान उस व्यक्ति को दिया जाए जो केवल शंका करने वाला है, जो भगवान में विश्वास नहीं रखता, जो अपवित्र है, जो आलोचक स्वभाव का है — तो वह न केवल इस ज्ञान का अपमान करेगा, बल्कि अपने लिए भी पथभ्रष्टता का कारण बनेगा।

इसलिए जैसे कोई कीमती रत्न किसी अयोग्य को नहीं सौंपा जाता, वैसे ही भगवद गीता का ज्ञान केवल उसी को दिया जाना चाहिए जो योग्य हो।

जो कोई इस संवाद को श्रद्धा से सिर्फ सुनता भी है, वो भी महान पुण्य अर्जित करता है। ये केवल पढ़ने या सुनने की बात नहीं है, बल्कि भावपूर्वक श्रवण करने का महत्त्व है।

जब कोई भक्त या जिज्ञासु व्यक्ति गीता के संवाद को ध्यानपूर्वक सुनता है, तो उसके भीतर भी वही चैतन्य जगता है जो अर्जुन के भीतर जगा था। श्रवण एक पवित्र प्रक्रिया है — भागवत महापुराण में भी श्रवण को प्रथम स्थान दिया गया है: "श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं..."। यह सिर्फ कानों से सुनना नहीं, बल्कि हृदय से आत्मसात करना है।

और जब कोई व्यक्ति गीता को इस भावना से सुनता है, तो उसके भीतर से अज्ञान, संशय और मोह का नाश होता है।

जो व्यक्ति गीता के इस गूढ़ संवाद को दूसरों को बताता है, वह यज्ञ, तप और दान करने वाले से भी श्रेष्ठ होता है। ये बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज भी लोग धर्म के नाम पर यज्ञ, हवन, पूजा, व्रत आदि में लिप्त रहते हैं, लेकिन उनमें ज्ञान नहीं होता।

लेकिन जब कोई व्यक्ति निस्वार्थ भाव से, भगवान के लिए, गूढ़ तत्वज्ञान का प्रचार करता है — और वो भी सिर्फ भक्ति और प्रेम से प्रेरित होकर — तो वह समाज का हित करता है।

ऐसे व्यक्ति को भगवान अपना प्रिय कहते हैं। क्योंकि वह केवल शब्द नहीं बाँटता, वह प्रकाश बाँटता है, अंधकार मिटाता है, और लोगों को मोक्ष के मार्ग पर प्रेरित करता है।

कई लोग सोचते हैं कि गीता पढ़ना या प्रचार करना विद्वानों का कार्य है। लेकिन यहाँ बताया गया है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना भी सामान्य क्यों न हो, अगर वह श्रद्धा और प्रेम से गीता को सुनता है, तो वह भी ईश्वर का कृपापात्र बन सकता है।

यहाँ भक्ति की महिमा स्पष्ट होती है — न तो ब्राह्मण कुल की आवश्यकता है, न विशेष ज्ञान की। अगर मन पवित्र है, भाव सच्चा है, और श्रद्धा अटल है — तो भगवान स्वयं उसकी रक्षा करते हैं और उसे परमगति प्रदान करते हैं। ये ध्यान देने योग्य है कि यह ज्ञान केवल अपने लिए नहीं है — इसका वितरण एक सेवा है, एक जिम्मेदारी है।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो कोई इसे दूसरों को श्रद्धा से समझाता है, वह मेरा सबसे प्रिय है। इसका अर्थ है कि ज्ञान का प्रचार भी साधना है

लेकिन प्रचार करते समय यह आवश्यक है कि व्यक्ति अहंकार से मुक्त हो, सिर्फ ईश्वर की प्रेरणा से यह कार्य करे, और सामने वाले को योग्य जानकर ही यह ज्ञान दे। आज के युग में भी अगर कोई व्यक्ति भगवद गीता का सार भावपूर्वक, सरल भाषा में लोगों को समझाता है — तो वह वास्तव में भगवान की सेवा कर रहा होता है।

अध्याय 18 के अंत में अर्जुन ने जो संशय के साथ युद्धभूमि में श्रीकृष्ण से प्रश्न किये थे — अब उन प्रश्नों के पूर्ण उत्तर उन्हें मिल चुके होते है। अब भगवान ये कहते हैं कि “क्या तुमने मेरा ये संवाद ध्यानपूर्वक सुना? क्या तुम्हारा मोह दूर हुआ?” — यानी भगवान अब अर्जुन की अन्तःस्थिति की पुष्टि करना चाहते हैं।

यह प्रश्न केवल अर्जुन से नहीं है — यह हम सब से है। जब हम गीता पढ़ते हैं, तब हमें भी यह प्रश्न आत्मा से पूछना चाहिए:

क्योंकि गीता का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, जीवन को रूपांतरित करना है।