(तीसरा भाग)
स्वधर्म, गुणों का विभाग और समाज में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका
अब चर्चा होती है उस कर्तव्य की, जो व्यक्ति को उसके स्वभाव और जन्म के आधार पर प्राप्त होता है। इसे ही स्वधर्म कहा गया है। लेकिन यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि गीता सिर्फ जन्म आधारित व्यवस्था को नहीं, बल्कि गुण और कर्म के आधार पर वर्गीकरण की बात करती है।
हमारे समाज में चार प्रमुख वर्गों का उल्लेख आता है — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह वर्गीकरण कभी भी जाति या वंश पर आधारित नहीं था। यह व्यक्ति की प्रवृत्ति, गुण, और कर्म पर आधारित व्यवस्था थी। जो जैसा सोचता है, जैसा कार्य करता है, जिस प्रवृत्ति का है — वही उसका स्वधर्म है।
ब्राह्मण का स्वभाव
ब्राह्मण वह है जिसमें शांति, संयम, आत्मज्ञान, सरलता, क्षमा, श्रद्धा और तपस्या की प्रवृत्ति होती है। वह समाज को ज्ञान देता है, धर्म का मार्ग दिखाता है और जीवन को विवेक से चलाने में मदद करता है। ब्राह्मण का मुख्य कर्तव्य है – ज्ञान की साधना और समाज का मार्गदर्शन। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सिर्फ ब्राह्मण कुल में जन्मा है लेकिन उसमें ये गुण नहीं हैं, तो वह ब्राह्मण नहीं कहलाता।
जैसे - जड़भरत, जिन्होंने पूरी तरह से आत्मा में स्थित होकर जीवन बिताया। उन्होंने कभी किसी से बहस नहीं की, ना अपना ज्ञान दिखाया, लेकिन जब समय आया, तब उन्होंने एक राजा को गहराई से आत्मा और शरीर का भेद समझाया। वह असली ब्राह्मण थे — जिनका जीवन ही उपदेश था।
क्षत्रिय का स्वभाव
क्षत्रिय वह है जिसमें पराक्रम, तेज, साहस, त्याग, नेतृत्व और युद्ध-कौशल होता है। वह समाज की रक्षा करता है, अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है, और व्यवस्था को बनाए रखता है। क्षत्रिय का धर्म है — रक्षा और शासन, लेकिन धर्म के अनुरूप। अगर क्षत्रिय अहंकारी हो जाए, या अपनी शक्ति का दुरुपयोग करे, तो वह अधर्मी बन जाता है।
श्रीमद्भागवत में राजा प्रियव्रत का उल्लेख आता है — जिन्होंने योगी जीवन को छोड़कर, समाज की ज़रूरतों के लिए राजकाज संभाला और संपूर्ण पृथ्वी को सात द्वीपों में विभाजित करके उत्तम शासन किया। यह सच्चे क्षत्रिय की पहचान है — जो अपने कर्तव्य को समझता है और त्यागपूर्वक निभाता है।
वैश्य का स्वभाव
वैश्य वह है जो कृषि, व्यापार, धन प्रबंधन और पशुपालन जैसे कार्यों में निपुण होता है। वह समाज को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाता है। उसका धर्म है – धन कमाना, लेकिन धर्मपूर्वक, और उससे समाज की सेवा करना।
आज के समय में यदि कोई व्यापारी ईमानदारी से कारोबार करता है, लोगों को काम देता है, अपने लाभ के साथ-साथ समाज का भी कल्याण सोचता है — तो वह वैश्यधर्म का पालन कर रहा है।
शूद्र का स्वभाव
शूद्र वह है जो सेवा करने में कुशल होता है। वह दूसरों की मदद करने, साथ देने, कार्यों को पूर्ण कराने में निपुण होता है। सेवा को छोटा नहीं माना गया है। गीता में यह स्पष्ट है कि सेवा भी एक महान कर्म है — अगर वह श्रद्धा और समर्पण से की जाए।
भागवत में भी विदुर जी का उदाहरण है — जो एक शूद्र माता से उत्पन्न हुए, लेकिन भगवान के प्रिय बने। उनका जीवन ही यह सिद्ध करता है कि कर्म और भावना ही सबसे बड़ा धर्म है, जन्म नहीं।
हर व्यक्ति को अपना स्वधर्म करना चाहिए, चाहे वह देखने में थोड़ा कठिन या अल्प प्रतीत हो — लेकिन वह सहज होता है, इसलिए उसे करना सरल होता है। दूसरे का धर्म अपनाना — भले ही वह आकर्षक क्यों न लगे — लेकिन वह अशुभ हो सकता है, क्योंकि वह हमारे स्वभाव के अनुरूप नहीं होता।
उदाहरण के लिए — अगर एक ब्राह्मण क्षत्रिय के धर्म को अपनाकर युद्ध करना चाहे, और उसमें हिंसा की भावना आ जाए, तो उसकी आत्मा में अशांति पैदा हो सकती है। वहीं, एक क्षत्रिय अगर ज्ञान की बातें करने लगे और अपने योद्धा-धर्म से विमुख हो जाए — तो वह ना समाज की रक्षा कर पाएगा और ना अपने भीतर की ऊर्जा को सही दिशा में प्रयोग कर पाएगा।
इसलिए गीता का आदेश है – “स्वधर्मे निधनं श्रेयः”, यानी अपने धर्म में मर जाना भी श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म का पालन करके जीने की तुलना में।
हर व्यक्ति जो भी करता है, वह उसकी प्रकृति के तीन गुणों — सत्त्व, रज, और तम — के अनुसार ही होता है। व्यक्ति स्वयं नहीं करता, बल्कि उसकी प्रवृत्ति उसे कराती है। इसलिए किसी को दोष देना या घमंड करना दोनों ही अनुचित हैं।
जिसके भीतर सत्त्वगुण प्रबल है, वह ज्ञान और सेवा की ओर आकर्षित होता है। जिसके भीतर रजोगुण है, वह कार्य, कर्मफल, प्रतिस्पर्धा और उपलब्धि की ओर बढ़ता है। और जिसमें तमोगुण है, वह आलस्य, मोह, क्रोध और अज्ञान की ओर गिरता है।
अब अगर कोई व्यक्ति कहे कि “मैं क्यों सेवा करूँ, मैं तो राजा बनना चाहता हूँ” — तो वह अपने स्वभाव के विरुद्ध जा रहा है। या कोई यह सोचे कि “ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन है, मैं तो सिर्फ धन कमाऊँगा” — तो वह भी अपनी आत्मा के स्वरूप को भूल रहा है।
गुणों के अधीन व्यक्ति वही कर्म करता है, जो उसे सहज लगे। अगर वह अपने सहज कर्म को स्वीकार करके निष्ठा से करे, तो वह भी मोक्ष की ओर बढ़ सकता है। क्योंकि भक्ति का मार्ग सबके लिए खुला है, चाहे वह किसी भी वर्ण या अवस्था का हो।
कर्म से भागना समाधान नहीं है, बल्कि कर्म को ईश्वर को अर्पित करना, और उस कर्म में आत्मा के विकास को जोड़ देना — यही मुक्ति का मार्ग है। जब व्यक्ति कहता है “मैं कर रहा हूँ”, तो वह फँसता है। लेकिन जब वह कहता है “मैं तो सिर्फ माध्यम हूँ”, तो ईश्वर कृपा बरसाते हैं।
जैसे अगर कोई वैश्य व्यापार करते समय ये समझे कि समाज सेवा के लिए मैं “जो लाभ हो रहा है, उसका एक अंश मैं दान दूँगा” — तो वह व्यापार भी भक्ति बन जाएगा।
अगर कोई ब्राह्मण ज्ञान बाँटते समय यह समझे कि “मैं ज्ञान देने वाला नहीं, सिर्फ ईश्वर की वाणी का माध्यम हूँ” — तो उसका अहं समाप्त हो जाएगा।
अगर कोई शूद्र किसी की सेवा करते हुए सोचता है कि “मैं तो प्रभु की सेवा कर रहा हूँ इस रूप में” — तो उसकी सेवा सबसे श्रेष्ठ बन जाएगी।