(दसवाँ विषय)
इस्लाम के अनुचित नियम
वेदांत : उदाहरण के लिए - पश्चिमी, अफ्रीकी और अरबी देशों में युद्ध करके किसी भी राज्य पर कब्ज़ा करने के बाद वहाँ के लोगों को अपना गुलाम बना लिया जाता था। फिर उन लोगों का गुलाम के रूप में प्रयोग करने के साथ ही उन्हें समान यानी वस्तुओं के जैसे बाज़ार में सारेआम बेचा भी जाता था।
शाहिदा : पर ये प्रथा तो इस्लाम के आने से भी पहले से थी, फिर इसका इस्लाम से क्या लेना-देना?
वेदांत : लेना-देना ये है कि इस्लाम ने भी इसे स्वीकार किया है। यहाँ तक कि इस्लाम ने तो पुरुषों को महिला गुलामों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने की इच्छा को पूरा करने की भी अनुमति देदी। इसका प्रमाण क़ुरान सूरह 23 आयत 6 में मिलता है। जिसमें कहा गया है कि “पुरुषों के लिए अपनी पत्नियों और गुलाम लड़कियों के साथ हमबिस्तरी करना निंदनीय नहीं है।” और यही बात क़ुरान सूरह 33 आयत 50 में भी कही गयी है।
शाहिदा : आवश्यक थोड़ी है कि हर मुसलमान ही गुलामी और यौन गुलामी का पालन करें।
वेदांत : क्या हर मुसलमान को ये आदेश नहीं है कि वो सब कार्य करें जो मुहम्मद ने किये हैं?
शाहिदा : हाँ! पैग़म्बर मुहम्मद के जितनी शादियां करने के इलावा, उन्होंने जो कुछ भी किया है वो सब मुसलमानों को करना चाहिए। माना जाता है कि उनके जैसे कार्य करना सुन्नत यानि पुण्य होता है।
वेदांत : तो अगर मैं कहूँ कि मुहम्मद ने स्वयं ऐसा किया है, तब? पुस्तक ‘सुनअन नसाई' की हदीस 3959 में मुहम्मद और उनकी एक गुलाम ‘मारिया किबतिया’, जो उनको किसी ने तोहफ़े के रूप में दी थी, उसके साथ शारीरिक संबंध के एक वाक्य के बारे में बताया गया है।
शाहिदा : देखिये, कुछ हदीस ऐसी होती हैं, जो सच नहीं होती। उनको ‘दैफ’ या ‘मौदु’ हदीस कहा जाता है।
वेदांत : ये बात मैं अच्छे से जानता हूँ, 4 प्रकार की हदीस होती हैं - साहीह, हसन, दैफ और मौदु। साहीह का अर्थ है पूर्ण रूप से सच और सटीक, हसन का अर्थ है प्रमाणिक और उचित, दैफ का अर्थ है कमज़ोर, वहीँ मौदू का अर्थ है झूठ और जाली। इसलिए मैं कोई दावा करने के लिए किसी भी दैफ या मौदू हदीस की बात नहीं करूंगा। मैं अधिकांश उसी हदीस की बात करता हूँ जो पूर्ण रूप से साहीह यानी सटीक होती है। सुनन नासाई की हदीस 3959 भी साहीह घोषित है, और इसको हर इस्लाम बड़े से बड़े विद्वान ने सच स्वीकार किया है। इसमें बताया गया है क़ि एक दिन मुहम्मद अपनी गुलाम मारिया के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना रहे थे, तभी इस बारे में ‘हफ़सा और आयेशा’ जो उनकी पत्नियां थीं, उनको पता चल गया। हफ़सा और आयेशा ने मुहम्मद को ऐसा करने से मना किया, पर मुहम्मद ने क़ुरान का हवाला देते हुए कहा कि ये हलाल है। लेकिन बहुत विरोध होने पर मुहम्मद ने कहा कि ठीक है मैं इसे हराम घोषित करता हूँ। ये देखकर अल्लाह को उल्टा हफ़सा और आएशा पर क्रोध चढ़ गया। इसलिए अल्लाह ने मुहम्मद पर आयतें उतारनी शुरू करी। आप तो जानते ही होंगे कि क़ुरान की सभी आयतें, इस प्रकार ही परिस्थितियों के अनुसार आती थीं। इस घटना पर सबसे पहले सुरह 66 की पहली आयत उतरी जिसमें अल्लाह ने मुहम्मद से कहा कि “जिसे मैंने तुमपर हलाल किया है, तुम उसे केवल अपनी पत्नियों की प्रसन्नता के लिए हराम क्यों कर रहे हो?” अल्लाह ने हफ़सा और आएशा को भी डांट तो लगाई ही, साथ ही उन दोनों को एक भयंकर धमकी भी दे डाली। क़ुरान सुरह 66 आयत 5 में अल्लाह ने हफ़सा और आएशा से मुहम्मद का विरोध करने के कारण कहा, कि “तुमने जो किया है इसके लिए मुहम्मद तुम्हें इसके लिए तलाक़ दे सकते हैं। और अगर उन्होंने तुम्हें तलाक़ दे दिया तो अल्लाह उन्हें तुम्हारे बदले में तुमसे उत्तम पत्नियां दे सकते हैं।” फिर इससे अगली आयत में अल्लाह जहन्नुम का डर दिखाने लगे। इस प्रकार से मुहम्मद के लिए उनकी गुलाम लड़की मारिया किबतिया के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना फिरसे वैध हो गया। यही कारण है कि मुहम्मद साहब की सभी पत्नियां उनकी किसी बात का कभी विरोध नहीं कर सकती थीं। इस घटना के द्वारा ही आप समझ सकते हों कि मुहम्मद साहब की पत्नियां उनका कई विषयों में विरोध तो करना चाहती थीं, लेकिन उनकी पत्नियों को ये भी पता था मुहम्मद का विरोध करके वो शान्ति से जीवन नहीं जी सकेंगी। और ऐसी विरोध भावना सबसे अधिक आयेशा में देखने को मिली थी। जैसे सहीह अल बुखारी की हदीस 4788 में एक बार आयेशा कहती हैं कि “मैं उन महिलाओं को तुच्छ समझती थीं जिन्होंने स्वयं को मुहम्मद को समर्पित कर दिया था।” सहीह अल बुखारी की हदीस 3818 में आयेशा कहती हैं कि “मैंने अपने जीवन में कभी किसी महिला से इतनी जलन महसूस नहीं करी, जितना मैं मुहम्मद की पहली पत्नी खजिदा से जलती हूँ, जबकि मैंने उन्हें देखा भी नहीं। इसलिए मैंने एक बार मुहम्मद से कहा कि आप बार बार ख़दिजा का उल्लेख क्यों करते हैं?” पर आयेशा के पिता ‘बक़र’ मुहम्मद के इतने कट्टर भक्त थे कि वो कहा करते थे कि मुहम्मद के एक बार कहने पर वो बिना सोचे समझें अपने ही पेट में तलवार डाल सकते हैं। तो ये बात बिलकुल झूठी है कि मुहम्मद की पत्नियां उनका विरोध नहीं करना चाहती थीं, बस वो विरोध कर नहीं सकती थीं। क्योंकि ऐसा करने पर मुहम्मद और इस्लाम के हज़ारों भक्त उनकी पत्नियों के कट्टर शत्रु बन जाते। इसलिए मुहम्मद उन्हें तलाक़ देदें, या वो मुहम्मद से तलाक़ लेलें, ये दोनों कार्य ही उनके लिए संभव नहीं थे। यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य ये नहीं है कि उनकी पत्नियां उनसे प्रसन्न रहती थीं या नहीं। मैं बस प्रमाण देकर ये बता रहा हूँ, कि उनकी पत्नियां उनका कई मामलों के विरोध करना चाहती थीं, लेकिन कर नहीं पाती थीं। कई मुसलमान लोग कहते हैं कि अल्लाह की दृष्टि में तलाक़ बुरा कार्य है, क्या ये बात सच है?
शाहिदा : हाँ! कहते तो हैं कि अल्लाह तलाक़ को पसंद नहीं करते।
वेदांत : पर मुहम्मद का मरिया के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने, और आयेशा तथा हफसा द्वारा उनका विरोध होने वाली इस घटना में मुहम्मद ने स्वयं से तो कहा ही नहीं था कि वो उनकी पत्नियों को तलाक़ देंगे, फिर अल्लाह क्यों उनकी पत्नियों को तलाक़ देने की धमकी देने लगे? हालांकि मुहम्मद अपने मुँह से बोल तो रहे थे ये बात, पर दर्शा तो ऐसा रहे थे जैसे वो स्वयं की ओर से नहीं बोल रहे, बल्कि अल्लाह ने जीबराइल को ऐसा बताया है, और जीबराइल ने मुहम्मद को। अगर मुहम्मद अपनी पत्नियों की प्रसन्नता के लिए मारिया के साथ सम्बन्ध को अवैध करना चाहते हैं, तो अल्लाह को इसमें क्या समस्या थी? या फिर क्या ऐसा है क़ि मुहम्मद स्वयं ही मारिया के साथ शारीरिक सम्बन्ध को वैध रखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने मन से ही ये आयत बना दी? मैं कोई दावा नहीं कर रहा, बस ये मन के सामान्य प्रश्न हैं जिसका उत्तर किसी के पास नहीं।
शाहिदा : आपके तर्क बिलकुल उचित हैं, शायद इसलिए ही इस्लाम में लोगों को इस प्रकार से तीखे तार्किक प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं है। अगर लोग ऐसे आवश्यक प्रश्न पूछते हैं तो उन्हें काफ़िर कहा जाता है, या फिर उनपर पैग़म्बर और इस्लाम का अपमान करने का आरोप लगा दिया जाता है। मौलाना लोग तो इसपर यही कहते हैं कि जो महिला इस्लाम के नियमों के विरुद्ध जाएगी, उसको तो तलाक़ देना ही चाहिए।
वेदांत : यानी चार शादियां तो दूर की ही बात है, यहाँ तक कि अगर कोई लड़की अपने पति को उसकी गुलाम लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से रोकने का प्रयास भी करे, तो उसे भी तुरंत तलाक़ दिया जा सकता है।
शाहिदा : मौलाना लोग कहते हैं कि यौन गुलामी के नियम में कुछ भी बुरा नहीं है। क्योंकि जब किसी राज्य पर कब्ज़ा कर लिया जाये और वहाँ की महिलाओं को दासी बनाकर उनके साथ सम्भोग किया जाये, तो इसमें क्या समस्या है? कम से कम उन महिलाओं को जेल में डालकर उन्हें यातनाये तो नहीं दी जा रही।
वेदांत : आपको क्या लगता है कि अगर उन मौलाना लोगों की माँ, बहन तथा पत्नी को यौन गुलामी की परंपरा को सहना पड़ता, तब भी वो इसे उचित सिद्ध करने का प्रयास करते?
शाहिदा : मुझे नहीं लगता।
वेदांत : तो क्या अन्य महिलाएं किसी की माता या बहन नहीं होती? क्या वो किसी की प्रेमिका, किसी की पत्नी नहीं होती? या उन महिलाओं में भावनाएं नहीं होती? जब महिलाओं का युद्ध से कोई लेना-देना नहीं तो उनको गुलाम बना लेना उचित कैसे हो सकता हैं? हमारे धर्म में तो कहा गया है क़ि अगर शत्रुदल का कोई पुरुष युद्ध करते हुए मर जाए, तो उसकी पत्नी को अपनी बहन या माँ समझकर उसकी सेवा करनी चाहिए। न कि उस बेचारी असहाय महिला की निर्बलता का लाभ उठाकर उसके साथ ये गन्दा कार्य करना चाहिए। उन असहाय महिलाओं के विषय में नहीं तो कम से कम अपनी पत्नी के विषय में तो विचार कर लेना चाहिए। पत्नी के होते हुए जब कोई पुरुष किसी दासी के साथ सम्बन्ध रखेगा तो वो कितना आहत होंगी? ईश्वर वास्तव में कभी कोई ऐसा नियम नहीं बना सकते जिससे आपको अकारण ही दुख पहुँचे। गलती इस परंपरा का विरोध करने वाली लड़की की नहीं होगी, बल्कि इस परंपरा की होगी। क्या कोई पुरुष ये सहन कर पायेगा कि उसकी पत्नी स्वयं के सुख के लिए उसके पुरुष दास के साथ यौन सम्बन्ध बनाये, और ईश्वर उसे हलाल घोषित कर दें?
शाहिदा : बिलकुल नहीं क्योंकि पुरुषों को तो लगता है कि भावनाएं केवल उनमें होती हैं, महिलाओं मे तो भावनाएं होती ही नहीं।
वेदांत : सभी पुरुषों को ऐसा नहीं लगता, केवल हवस और घमंड के कारण अंधे हो चुके पुरुषों को ऐसा लगता हैं। इसके इलावा इस्लाम में निकाह यानि शादी के समय पर स्त्री-पुरुष को तीन बार ‘क़ुबूल है’ या ‘स्वीकार है’ बोलना पड़ता है। सामान्य तौर पर लोग स्वीकार है तो बोल देते हैं, पर उन्हें ये नहीं पता होता कि उनसे क्या स्वीकार करवाया जा रहा है? निकाह एक समझौते को कहा जाता है, उसके अनुसार लड़की जब तीन बार बोलती है ‘मुझे क़ुबूल है' तो इसका मतलब ये है कि वो पुरुष को तीन अन्य स्त्रियों से भी शादियां करने की अनुमति देती है, गुलाम लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने की अनुमति देती है, पुरुष के तीन बार तलाक़ बोलने पर बिना विरोध किये निकाह के टूट जाने को भी स्वीकार करती है। एक बार मुहम्मद ने कहा - कि स्त्रियों के लिए पर्दा करने या शरीर को ढकने से भी अधिक आवश्यक है, कि वो अपने पति की चार शादियां पूरी करवाएं। जो लड़की ऐसा करेगी, वो ही वास्तव में मुझपर आस्था रखने वाली कहलाई जाएगी। क्या आप शादीशुदा हो?
शाहिदा : जी हाँ।
वेदांत : आपने निकाह में क़ुबूल है अवश्य बोला होगा, तो क्या आप अपने पति को 4 शादी करने की अनुमति दोगे?
शाहिदा : बिलकुल भी नहीं। मैं न तो अपने पति को 4 शादियां करने की अनुमति दूंगी, न ही किसी गुलाम लड़की से शारीरिक सम्बन्ध रखने की अनुमति दूंगी, और तीन तलाक़ को भी मैं स्वीकार नहीं करूंगी।
वेदांत : इसका मतलब आपने ये झूठ ही बोला था, कि आपको निकाह क़ुबूल है। इस्लाम के अनुसार तो अगर किसी पुरुष की कोई बहुत बड़ी समस्या हो, तभी उसे एक शादी करनी चाहिए। नहीं तो भले ही धन की थोड़ी बहुत समस्या भी हो, तब भी दो, तीन, चार शादी अवश्य करनी चाहिए।
शाहिदा : हाँ, आप सही बोल रहे हो। लेकिन ये कई पत्नियों वाली बात इस्लाम में फर्ज़ यानि कर्तव्य भी तो नहीं है। हर पुरुष का एक से अधिक शादी करना आवश्यक नहीं बताया गया है। अगर पुरुष चाहे तो एक शादी करके भी जीवन व्यतीत कर सकता है।
वेदांत : ये करना फर्ज़ तो नहीं है, पर सुन्नत तो हैना? जो पुरुष एक से अधिक शादी करेगा वो अधिक ईमान वाला कहलाएगा?
शाहिदा : हाँ, ये तो सच है।
वेदांत : मुझे नहीं लगता कि आज कोई समझदार मुसलमान लड़की भी वास्तव में निकाह के समझौते से सहमत होगी। मुसलमान लड़कियां निकाह पढ़ने और क़ुबूल करने को ही शादी मानती हैं, इसलिए वो बेचारी इसे बहुत पवित्र और आनंदप्रद समझती हैं। पर सच तो है कि निकाह लड़कियों के लिए कोई आनंद की चीज़ नहीं, बल्कि ये तो एक डरा देने वाला समझौता है।
शाहिदा : इस्लाम में जब तक लड़की क़ुबूल है नहीं बोलती, तब तक निकाह पूरा नहीं होता। लड़की चाहे तो मना भी कर सकती है, क्योंकि इस्लाम कहता है कि लड़कियों की इच्छा के बिना शादी हराम है। और कहा जाता है कि अगर कोई आदमी
वेदांत : अगर कोई लड़की किसी लड़के को पसंद करती है, और उसके साथ शादी भी करना चाहती है, तो क्या तब भी उसको सच में निकाह क़ुबूल होगा?
शाहिदा : आपने सही कहा। वास्तव में निकाह की सच्चाई को जानने के बाद कोई भी लड़की निकाह करना पसंद नहीं करेगी। निकाह वैसा बिलकुल भी नहीं है जैसा फ़िल्म और सीरियल में दिखाया जाता है।
वेदांत : फ़िल्म और सीरियल में तो निकाह को प्रेम का प्रतीक बनाकर दिखाया जाता है, जबकि वास्तव में ये लड़कों या पुरुषों की अइयाशी का ही एक साधन है। जिस समय ये निकाह परंपरा शुरू हुई थी, पर महिलाओं को एक पुरुष के रक्षण की आवश्यकता थी। तब के लोग किसी एक महिला से निष्ठा रखना तो दूर, शादी करके किसी की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए ही तैयार नहीं थे। ऐसे में उन्हें एक शादी के लिए बोलना बिलकुल बेकार था। अगर उन्हें एक महिला से शादी करने के लिए कहा जाता तो वो बिलकुल नहीं मानते, क्योंकि वो लोग काम वासना और घमंड से भरे हुए थे। इसलिए उन्हें बहुत प्रकार की महिलाओं का शरीर चाहिए था। तब की महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं थी, इसलिए स्वयं का रक्षण करने की क्षमता नहीं थी उनमें। तभी मैं इस निकाह के नियम को उस ज़माने और वहाँ के लोगों के व्यवहार के अनुसार तो ठीक मानता हूँ, लेकिन आज के समय में ये अवश्य ही केवल पागलपन है। पर मज़बूरी में मुसलमान लड़कियों को तो निकाह करना ही पड़ जाता है। क्योंकि कोई मुसलमान लड़की चाहते हुए भी सीधा-सीधा इसका विरोध नहीं कर सकती। अगर वो विरोध करेगी तो उसे किसी दूसरे रीति-रिवाज से शादी करनी पड़ेगी। पर दूसरे रीति-रिवाज से शादी करना इस्लाम में बहुत बड़ा अपराध है। और जो भी मुसलमान इस्लाम के विरुद्ध जाएगा, उसे मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए - ऐसी मान्यता है। जैसे क़ुरान सुरह 9 आयत 12 में इस्लाम का विरोध करने वालों और पलटने वालों के लिए मृत्यु का दण्ड बताया गया है।
शाहिदा : मुहम्मद के बारे में मैंने सुना है कि एक बूढी काफिर यानी इस्लाम को न मानने वाली महिला मुहम्मद पर कचरा फेंकती थी, पर मुहम्मद उनपे कभी क्रोध नहीं करते थे। एक दिन उस महिला ने कचरा नहीं फेंका तो मुहम्मद उसके स्वास्थ्य का पता करने के लिए विशेष तौर पर उससे मिलने पहुंच गए थे। तो इस कहानी के अनुसार तो मुहम्मद एक दयालु व्यक्ति जैसे प्रतीत हो रहे हैं। फिर वो इस्लाम छोड़ने वालों की हत्या करने के लिए क्यों कहेंगे?
वेदांत : ये कहानी बिलकुल झूठी है। बूढी महिला के मुहम्मद पर कचरा फेंकने वाली कहानी न तो क़ुरान में है, और न ही किसी वास्तविक हदीस में ही मौजूद है। ये कहानी कुछ इस्लाम के विद्वानों ने केवल लोगों के सामने मुहम्मद का चरित्र उत्तम बताने के लिए स्वयं से बनाई थी, जिसे अज्ञानी लोग सच मान लेते हैं। मैं मुहम्मद को क्रूर तो नहीं कह रहा, लेकिन क्या आपके पास इस कहानी के कोई प्रमाण हैं? अगर हैं तो बताओ।
शाहिदा : नहीं मेरे पास इस कहानी के प्रमाण तो नहीं है।
वेदांत : क्योंकि ये वास्तविक है ही नहीं, केवल बनावटी कहानी है। बात रही कि क्या मुहम्मद ने इस्लाम छोड़ने वालों को मौत के घाट उतारा है?, तो हाँ उन्होंने ऐसा अनेकों बार किया था, और ऐसा करने के लिए अन्य मुस्लमान लोगों को भी प्रेरित किया था। पुस्तक ‘बुखारी’ की हदीस 6878 में मुहम्मद कहते हैं कि एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को तीन कारणों पर जान से मार सकता है। पहला कारण मृत्यु के बदले मृत्यु। दूसरा कारण अगर कोई ज़िना करे, यानी स्त्री अपने पति के इलावा, और पुरुष अपनी पत्नी या गुलाम लड़कियों के इलावा किसी अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाये। तीसरा कारण अगर कोई मुसलमान इस्लाम को छोड़ दे - ऐसे में उसे मृत्युदंड देना चाहिए। चलो पहले 2 नियम तो ईसाइयत और दूसरे कई मज़हबों में भी हैं, लेकिन इस्लाम छोड़ने पर मृत्युदण्ड क्यों? लोग अगर स्वेच्छा से इस्लाम को छोड़ना चाहते हैं तो इसके लिए मना क्यों किया गया है? और न केवल मना किया गया है, बल्कि उसको जान से मार देने की धमकी भी दी गयी है।
शाहिदा : शायद यही कारण है क़ि अधिकांश मुसलमान मूर्खता से भरे हुए सिद्धांत और परंपरा को न चाहते हुए भी उचित मानने, और उनका अनुसरण करने के लिए मजबूर होजाते हैं। मुसलमान लोग चाहते तो हैं क़ि वो इस्लाम के मूर्खतापूर्ण नियमों का विरोध करें, पर वो ये भी जानते हैं कि ऐसा करने पर उनके स्वयं के परिजन ही उनके शत्रु बन जायेंगे। उनके विरुद्ध कुफ्र के फ़तवे जारी होंगे जिसका दण्ड मृत्यु है। अब मुझे लगता है कि अगर कोई समझदार व्यक्ति इस्लाम के केवल कुछ मुख्य नियमों को भी अच्छे से जान लेगा, तो वो इस्लाम को पूर्ण रूप से कभी स्वीकार नहीं कर पायेगा। क्योंकि ये आज के समय में बहुत ही अधिक असभ्य लगते हैं। पर मुझे ये समझ नहीं आता कि इतने हिन्दू और अन्य मज़हब के लोग भी इस्लाम क़ुबूल क्यों कर रहे हैं?
वेदांत : एक तो ये कलयुग का प्रभाव है। शास्त्रों में बताया गया क़ि कलयुग में 99% लोग मुर्ख, अज्ञानी और कामी होंगे, तथा वो पाप कर्मों के कारण धर्म से दूर होते चले जायेंगे। और दूसरा कारण ये कि अज्ञानि लोग इस्लाम को इसलिए स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि उन्हें पूरा इस्लाम समझाने के बजाए, केवल थोड़ा सा ही बताया जाता है। अधिकांश मुस्लिम लोग स्वयं भी इस्लाम के नियमों को ठीक से नहीं जानते हैं। और अगर जानते भी हैं तो उनमें सुधार करने के स्थान पर या तो छुपाने का प्रयास करते हैं, या फिर किसी न किसी तर्क से सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। लेकिन अगर किसी मुर्ख व्यक्ति ने इस्लाम के नियमों को ठीक से जाने बिना ही गलती से भी इस्लाम को स्वीकार कर लिया, और बाद में उसे लगे कि ये तो उसे अनुसार उचित नहीं है। तब भी वो इस्लाम को छोड़ नहीं सकता। क्योंकि अगर कोई एक बार इस्लाम को स्वीकार कर ले, और फिर कभी सरेआम ये कहे कि मैं तो इस्लाम को नहीं मानता, या नहीं मानती, तो उसकी हत्या करना मुसलमानों का कर्तव्य है। यानी स्वागत तो गले में फूलों की माला पहनाकर कर किया जायेगा, पर अगर आप विदाई लेना चाहोगे तो आपका गला धड़ से ही अलग कर दिया जायेगा। फिर चाहे वो आपके पति-पत्नी हों, बच्चें हों या माता-पिता ही क्यों न हो। हालांकि इन दिनों तो भारत में पूर्व मुसलमान या ऐक्स मुस्लिम का ट्रैंड सा चल पड़ा है। लाखों मुसलमान लोग सरेआम इस्लाम छोड़ रहे हैं, और न केवल स्वयं छोड़ रहे हैं, बल्कि दूसरे मुसलमान लोगों को इस्लाम छोड़ने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं। यही लोग अगर अफगानिस्तान में होते या किसी ऐसे देश में होते जहां शरीया के नियम लागू हैं, तो उन्हें मार दिया जाता। मैं इस्लाम को पूर्ण रूप से उचित स्वीकार नहीं कर सकता, लेकिन अवश्य ही मैं इस्लाम की प्रत्येक बात को ही अस्वीकार भी नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे इस्लाम या किसी भी मज़हब से कोई द्वेष नहीं है।
शाहिदा : क़ुरान में ही अच्छी बाते भी तो हैं, जैसे सुरह 2 की आयत 256 में कहा गया है, कि मज़हब के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं है।
वेदांत : इस आयत पर मेरे एक पूर्व मुसलमान मित्र का कहना है कि जब मुहम्मद ने इस प्रकार की अच्छी बातें बताई थी, तब उनके पास अधिक शक्ति नहीं थी। यानी राज्य करने के लिए धन और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए अधिक लोग नहीं थे। पर जैसे ही इस्लाम को स्वीकार करने वाले लोगों की संख्या थोड़ी सी बड़ी। वैसे-वैसे अन्य मज़हब के लोगों के साथ युद्ध करने की भड़काउं आयतें आने लगीं। और उन लड़ाइयो के कारण ही इस्लाम अचानक फ़ैल गया था। जैसे क़ुरान के सूरह 9 की आयत 5 में कहा गया है कि “काफिरों को जहां कहीं पाओ उनकी हत्या करो, उन्हें पकड़ो, उन्हें घेरो और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो, फिर अगर वो क्षमा मांगकर नमाज़ क़ायम करलें, यानी अगर वो काफिर लोग इस्लाम क़ुबूल कर लें, तो उनको छोड़ दो।” इसके इलावा वो और उदाहरण भी देता है, जैसे - सूरह 9 की आयत 123 में कहा गया है क़ि “इस्लाम को सच मानने से इंकार करने वाले लोगों से लड़ाई करो और वो तुम्हारे अंदर कठोरता देखें।”, सूरह 9 आयत 23 में कहा गया है “जो मुस्लमान काफिरों को अपना मित्र बनाएगा वो अत्याचारी कहलाएगा” आदि। ऐसी बहुत सारी अन्य आयतें भी हैं जो मुसलमान और दूसरे मज़हब के लोगों के बीच द्वेष का कारण बनती है। और क़ुरान की जितनी भी आयतें हैं, वो परिस्थिति के अनुसार बदलती भी रहती थीं। हालांकि मेरे पूर्व मुस्लिम मित्र की बुद्धि तो राजनैतिक है, जबकि हम तो अध्यात्म में विश्वास करते हैं। मेरा ऐसा मानना है कि अगर किसी भी मज़हब की पुस्तक में कोई अच्छी बात बताई गई है, तो हमें उसपर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मैं ये नहीं चाहता कि आप किसी भी मज़हब का पूर्णतः विरोध करो। मगर कुछ बातें ऐसी हैं जो वास्तव में बहुत अधिक अभद्र हैं, जिसे हमें स्वीकार नहीं करना चाहिए। जैसे पुस्तक ‘सुनन अबू दाऊद’ की हदीस 2050 के अनुसार एक बार मुहम्मद साहब के पास एक व्यक्ति आया और उसने उनसे कहा - एक लड़की बहुत सुंदर है, धनवान है, और इस्लाम का भी अच्छे से पालन करती है, लेकिन वो बांझ है यानी बच्चों को जन्म नहीं दे सकती। तो क्या मैं उससे निकाह कर सकता हूँ? मुहम्मद ने साफ इंकार कर दिया। उस व्यक्ति ने एक बार नहीं बल्कि तीन बार आकर यही प्रश्न किया, पर मुहम्मद ने तीनों बार मना कर दिया। कारण ये था कि जो लड़की बच्चे पैदा नहीं कर सकती, वो इस्लाम के अनुसार शादी योग्य नहीं है। बांझ लड़की के साथ शादी करना इस्लाम में हराम नहीं है, लेकिन जो स्त्री मुहम्मद के बताए सिद्धान्त को जनसंख्या बढ़ाकर फैला नहीं सकती, उससे लाभ क्या होगा? - ऐसा माना जाता है। क्या ये अच्छी बात है?
शाहिदा : नहीं, मुझे तो ये बात अनुचित लगी। क्योंकि ऐसे में अगर बच्चे का जन्म होना अल्लाह के हाथ में है, तो फिर इसमें अल्लाह का ही दोष मानना चाहिए ना। पर मुझे समझ नहीं आता कि अगर इस्लाम इतना असभ्य है, तो फिर शुरुवाती समय के लोगों ने इस्लाम को स्वीकार कैसे किया था?
वेदांत : क्योंकि भले ही इस्लाम के अधिकांश नियम या बातें हमें आज बहुत अटपटे और बिल्कुल योग्य न लगें। पर जिस समय ये बने थे, तब वहाँ पर पहले से उपलब्ध नियमों से कई गुणा अधिक उत्तम थे। हालांकि उनका आज के समय में पालन करना अवश्य ही मूर्खता होगी। मैंने उदाहरण इस्लाम का दिया है, पर इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं किसी अन्य मज़हब या प्रथाओं को पूर्ण रूप से उचित मानता हूँ। फिर चाहे वो हिंदुत्व ही क्यों न हों, इसमें भी कई ऐसी परंपराएं हैं जो बिल्कुल भी मानने योग्य नहीं है।
शाहिदा : कुछ विद्वान् कहते हैं कि इस्लाम के आने के बाद महिलाओं पर अत्याचार होना कम हुआ और उन्हें अपने अधिकार मिले, क्या ये सत्य है? जैसे इस्लाम से पहले लोग लड़कियों को मार देते थे, पर इस्लाम ने ऐसा करने से रोका।
वेदांत : क्या आज के समय में भी कई पिछड़े गाँव के गवार अपराधी व्यक्तित्व के लोग लड़कियों को नहीं मार देते? और क्या उनमें मुसलमान लोग शामिल नहीं होते?
शाहिदा : हाँ ऐसा आज भी होता है, और हर मज़हब के लोग ऐसा करते हैं। मैं ये मानती हूँ कि जो लोग अपराधी होते हैं वो किसी मज़हब के नहीं होते। लेकिन इस्लाम ने तो ऐसा करने के लिए नहीं कहा ना?
वेदांत : तो आपको क्या ऐसा लगता है कि अन्य धर्म या मज़हब में लड़की या महिलाओं की हत्या करने के लिए कहा गया है? यहूदी मज़हब से लेकर हिन्दू धर्म तक किसी में भी महिलाओं पर अत्याचार करने के लिए नहीं कहा गया। वो विद्वान् आकरण इस्लाम को सबसे अच्छा सिद्ध करने के लिए ये व्यर्थ की बात करते हैं।
शाहिदा : पर मौलवी लोग कहते हैं कि इस्लाम ने पत्नियों पर हाथ उठाने, उनको मारने पीटने से तो रोका है ना?
वेदांत : पर मुझे तो लगता है कि केवल इस्लाम ही एकमात्र ऐसा मज़हब है, जिसकी सबसे पवित्र पुस्तक क़ुरान में पत्नी को मारने की अनुमति दी गयी है। शायद इस विषय में आपको जानकारी नहीं होगी क्योंकि मौलाना लोग केवल बात को घुमाते हैं, वास्तविकता नहीं बताते। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि आपको अच्छे से पढ़कर स्वयं ही समझना चाहिए। इस्लाम की वास्तविक पुस्तक क़ुरान है और क़ुरान के सुरह 4 की आयत 34 में अल्लाह ने ये कहा है कि “पति पत्नियों के संरक्षक और निगराँ हैं, अल्लाह ने पति को पत्नी से आगे रखा है, क्योंकि पतियों ने उनपर अपना धन ख़र्च किया है, तो नेक पत्नियाँ आज्ञापालन करनेवाली होती हैं, जो पत्नियाँ ऐसी हों जिनकी सरकशी का तुम्हें डर हो, उन्हें समझाओ और बिस्तर में अकेली छोड़ दो और उन्हें मारो भी।” - ये लिखा है क़ुरान में तो।
शाहिदा : शायद इस आयत में जो अरबी शब्द है उसका तात्पर्य केवल हल्का सा मारना है, बहुत अधिक मारने की अनुमति नहीं होगी।
वेदांत : इस आयत में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा कि एक थप्पड़ मारना है या चार, ये अलग-अलग सम्प्रदाय के मौलवी अपने अनुसार ही कहते हैं। कोई कहता है कि कपड़े से मार सकते हैं, कोई कहता है एक थप्पड़ मार सकते हैं, तो कई सऊदी अरब और अफगानिस्तान के मौलवी लोग कहते हैं कि तब-तक मारो जब तक आपकी पत्नी आपकी बात मान नहीं लेती। हालांकि पुस्तक ‘अल बुखारी’ की हदीस 5204 में मुहम्मद कहते हैं कि अपनी पत्नी को उस तरह से न मारो जैसे तुम अपने गुलामों को कोड़े मारते हो, क्योंकि रात में फिर तुमको अपनी पत्नियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध भी बनाना होता है।
शाहिदा : ये कैसा तर्क है? हर जगह बस काम वासना ही दिख रही है।
वेदांत : लेकिन चाहे कम मारो या अधिक, किसी व्यस्क को मार ही कैसे सकते हैं? और वो भी उसे जो आपकी अर्धांगिनी है। हमारे धर्म में तो हमने किसी राक्षस के विषय में भी ऐसा नहीं पढ़ा, कि उसने अपनी पत्नी को मारा हो।
शाहिदा : अगर कोई महिला बहुत अधिक बुरा कार्य करती है, तब तो उसको मरना पड़ सकता हैना?
वेदांत : कौनसा बुरा कार्य?
शाहिदा : ज़िना यानि अवैध सम्बन्ध आदि।
वेदांत : पर ज़िना का दण्ड तो मृत्यु है।
शाहिदा : अगर कोई बहुत अधिक बुरा कार्य करे तो उसे मारना पड़ सकता है, और ऐसा ही पत्नियां भी तो कर सकती हैं अपने पति से साथ। अगर किसी का पति कोई बहुत बुरा कार्य करे या उसे पीड़ा दे, तब वो भी अपने पति को मार सकती है - मेरे मत से।
वेदांत : नहीं, क्योंकि क़ुरान के अनुसार केवल पुरुषों को ही ये अधिकार है कि वो अपनी पत्नी को मार सकता है, जैसा कि सूरह 4 की आयत 34 में कहा गया है। लेकिन इसी के जैसी क़ुरान में एक और आयत है जो इसके बिलकुल विपरीत है। क़ुरान सूरह 4 की आयत 128 में कहा गया हैं कि “अगर किसी स्त्री को अपने पति की ओर से सरकशी या बेरुख़ी का डर हो, तो दोनों को आपस में सुलह कर लेनी चाहिए, और मेल-मिलाप अच्छी चीज़ है।”
शाहिदा : यानी स्त्रियां कुछ उल्टा करें तो पुरुषों को कहा गया है कि उनके साथ बिस्तर साझा मत करो, तथा मार-पीट करो। लेकिन अगर पुरुष करें तो स्त्रियों को सुलह कर लेने के लिए कहा गया है। क्योंकि पुरुष स्त्री पर धन खर्च करते हैं, केवल इसलिए? और जो महिलाएं दिनभर घर का काम करती हैं, इतना श्रम करती हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है? मौलवी लोग तो बस ईमान ईमान करके और जन्नत की अइयाशी तथा जहन्नुम का डर दिखाकर मुर्ख बनाते चले जा रहे हैं सबको।
वेदांत : इस्लाम को पूर्ण रूप से गलत तो मैं भी नहीं कह रहा। पर धर्म के विषय में आस्था की आवश्यकता ही क्या है? धर्म तो उसे कहा जाता है जो बिल्कुल ठीक हो। आस्था अगर ईश्वर के लिए हो तो बात अलग है, पर धर्म और धार्मिक नियमों के विषय में आस्था की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए। अगर किसी नियम के लिए आस्था या ईमान की आवश्यकता पड़ रही है, तो इसका अर्थ है कि निश्चित रूप से वो गलत है।