(ग्यारहवाँ विषय)

नक़ल से बना इस्लाम



शाहिदा : जब हम लोग कोई समझदारी की बात करते हैं, और इस्लाम के असभ्य नियमों को गलत सिद्ध करते हैं, तो मौलाना लोग अक्सर ये कहने लगते हैं कि इस्लाम में तो कितनी विशेष और तर्कशील परंपराएं हैं। रोज़े की परंपरा को तो वैज्ञानिक भी उत्तम समझते हैं, और यहाँ तक कि आज के वैज्ञानिक जिस ‘बिग बैंग थ्योरी’ की बात करते हैं, हमारी क़ुरान ने तो उसे 1400 वर्ष पहले ही बता दिया था। यानी वो विज्ञान के अनुसार भी इस्लाम को सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। वो कहते हैं कि अगर इस्लाम सत्य नहीं होता, तो इस्लाम में कई सदियों पहले ही ऐसी चीज़ें न होती जो आज के आधुनिक वैज्ञान से भी सही सिद्ध होती हैं। 


वेदांत : वो लोग ऐसा कहकर अज्ञानी और अन्धविश्वासी लोगों को मुर्ख बनाते हैं। जबकि सच तो ये है कि केवल कुछ कहानियों तथा नियमों को छोड़कर इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो नया हो। यहाँ तक क़ि नमाज़ के समय मुसलमान जो व्यायाम करते हैं, अरब में वो मुहम्मद के जन्म लेने से भी बहुत पहले से था। और नमाज़ का एक प्रकार है, जो सनातन हिन्दू धर्म की पुस्तकों से ही विश्व भर में नक़ल किया गया है, जिसे शष्टांग कहते हैं।


शाहिदा : इस्लाम में रोज़े की परंपरा है, और भी बहुत सी परम्पराएं हैं जो इस्लाम ने विश्व को दी हैं। क्या वो सबकुछ दूसरे मज़हबों की नक़ल करके इस्लाम में जोड़ा गया है? 


वेदांत : सबकुछ तो नहीं पर इस्लाम में जो कुछ भी तर्कशील है, वो सब दूसरे मज़हबों की ही नक़ल है। लेकिन मौलाना लोग आपको ये सच्चाई नहीं बताते, क्योंकि वो आपको भ्रम में रखना चाहते हैं। आपने रोज़े की बात करी है तो चलिए आपको यही बताता हूँ कि मुसलमान लोग जो रोज़े रखते हैं, वो भी इस्लाम की प्रथा नहीं है। इसमें भी एक प्रकार से दूसरे मज़हब की नकल ही करी गई है। इसपर एक प्रसिद्ध तर्क ये है कि तुर्की में लगभग 4000 वर्ष पहले ‘मेसापोटामिया’ नाम का एक मज़हब था। उस मज़हब के एक देवता थे जिनका नाम ‘सीन’ कहा जाता है। सीन को चांद का देवता माना जाता था। एक दिन मार्च के महीने में आकाश से चांद गायब हो गया, तो मेसापोटामिया के लोगों को लगने लगा कि सीन देवता उनसे रूठ गए हैं। जब कई दिनों तक आकाश में चांद नहीं दिखा तो उन लोगों ने व्रत यानी रोज़े रखना शुरू कर दिया। वो लोग पूरा दिन भूखे रहते थे और केवल रात में ही थोड़ा भोजन ग्रहण करते थे। यहाँ तक कि उन्होंने सम्भोग करना भी बन्द कर दिया। इस प्रकार से वो लोग स्वयं को दण्ड दे रहे थे। ठीक एक महीने बाद ‘डेर कादी’ नामक स्थान पर चांद दिखने लगा। तब सब लोग प्रसन्न हो गए और उत्सव मनाने लगे। आगे चलके ये उनका त्योहार बन गया, और परंपरा में शामिल हो गया। 


शाहिदा : आप ये दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि इस्लाम ने रोज़े में नकल करी है?


वेदांत : क़ुरान सुरह 2 आयत 183 में ही ऐसा बताया गया है। उसमें ही कहा गया है कि “तुमपर रोज़े उसी प्रकार अनिवार्य कर दिये गये हैं, जैसे तुमसे पहले के लोगों पर किये गये थे।” इस आयत से ये साफ पता चलता है कि इस्लाम में रोज़े की परंपरा को किसी दूसरे मज़हब से नकल करके जोड़ा गया है।


शाहिदा : तो जैसा आपने अभी बताया कि मेसापोटमिया के लोग तो शारीरिक सम्बन्ध भी नहीं बनाते थे रोज़ा रखकर, पर इस्लाम में तो ऐसा नहीं है। 


वेदांत : इस्लाम में भी पहले ऐसा ही नियम था। पर वहाँ के लोग, विशेष तौर पर इस्लाम के दूसरे खलीफा यानी मुहम्मद के उत्तराधिकारी ‘उमर’ नामक व्यक्ति, इतने कामुक थे कि अल्लाह को मज़बूरी में इसकी अनुमति देनी पड़ी। 


शाहिदा : क्या आपके पास कोई प्रमाण है इसका?


वेदांत : जी बिल्कुल। क़ुरान सुरह 2 की आयत 187 में ये बताया गया है। उसमें कहा गया है कि “तुम्हारे लिए रोज़े की रात में अपनी स्त्रियों से सम्बन्ध बनाना ह़लाल कर दिया गया है। वो तुम्हारा वस्त्र हैं तथा तुम उनके वस्त्र हो, अल्लाह को पता चल गया कि तुम लोग छुप कर भोग कर रहे थे”। आप यहाँ भी ये देख सकते हो कि अल्लाह ने परिस्थिति के अनुसार फिरसे नियम पलट दिया। इस्लाम में रमज़ान और रोज़े की प्रथा तब आयी थी जब मुहम्मद खजारज नाम के आदिवासियों से मिले थे। खजारज लोग पहले से ही एक महीने का रोज़ा रखा करते थे, ये उनकी प्रथा थी।


शाहिदा : मुझे तो लगता है कि मुहम्मद जब भी किसी परंपरा या कहानी के बारे में सुनते थे, तो उसमें थोड़ा सा बदलाव करके कहा करते थे क़ि अल्लाह ने जीबराइल नामक फ़रिश्ते को भेजकर उनको इससे सम्बंधित आयत दी है, फिर उसे इस्लाम में पेश कर दिया करते थे। 


वेदांत : अब ये बात सत्य थी या असत्य, ये तो वही जानें। पर इसी प्रकार ही क़ुरान की आयतें मुहम्मद साहब की प्रतिक्रियाओं के अनुसार ही आया करती थी। 


शाहिदा : जैसे?


वेदांत : उदाहरण के लिए, आप ये बताइये कि इस्लाम में ‘ईद-उल-अधा’ या ‘बकरीद’ का त्योहार क्यों मनाया जाता है? 


शाहिदा : एक बार अल्लाह ने पैगम्बर इब्राहिम को उनके बेटे ‘इस्माइल’ की कुर्बानी यानी बलि देने के लिए कहा था। ये एक प्रकार से परीक्षा थी। तो इब्राहिम ने अल्लाह के आदेश का पालन करते हुए, इस्माइल की बलि देदी। लेकिन जैसे ही इब्राहिम ने इस्माइल पर छूरा चलाया और फिर देखा तो इस्माइल जीवित थे, तथा उनके स्थान पर एक अन्य पशु पड़ा हुआ था। एक फरिश्ते ने इब्राहिम को बताया कि ये अल्लाह ने तुम्हारी परीक्षा ली है। 


वेदांत : वास्तव में इब्राहिम ने इस्माइल की नहीं, बल्कि अपने अन्य बेटे ‘इसाक’ की बलि दी थी। 


शाहिदा : नहीं! ईसाक नहीं बल्कि इस्माइल की बलि दी गयी थी।


वेदांत : मुझे पता है कि इस्लाम में इस्माइल की बलि देने के बारे में बताया गया है। लेकिन ये कहानी असल में ‘बाइबिल ओल्ड टेस्टामेंट’ की है, इस्लाम में वहाँ से नक़ल करके जोड़ी गयी है। ओल्ड टेस्टामेंट में इस्माइल नहीं, बल्कि इसाक की बलि देने के बारे में बताया गया है। ये दोनों ही इब्राहिम के बेटे थे।


शाहिदा : तो फिर क़ुरान में इसका बदलाव क्यों किया गया? इस कहानी में बदलाव करने से मुहम्मद या इस्लाम को क्या लाभ हुआ?


वेदांत : तथ्य जाँचने वालों के अनुसार इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला ये कि वास्तव में मुहम्मद साहब को पढ़ना और लिखना तो आता ही नहीं था, क्योंकि वो बिलकुल पढ़े-लिखे नहीं थे। क़ुरान के लिए भी मुहम्मद बस बोलते थे कि मुझपर ऐसी आयत आयी है, फिर उस आयत को ‘ज़ैद’ नामक व्यक्ति तथा अन्य लोग लिखते थे। अनपढ़ होने के कारण वो केवल इधर-उधर से सुनी हुई बातों को ही जान पाते थे। और केवल सुनी-सुनाई बातें पूर्ण रूप से उचित नहीं होती, इसलिए उन्होंने ये गलती करी। और दूसरा कारण ये कि यहूदी मज़हब में एक अंतिम पैगम्बर के आने की बात कही गयी थी। और उनकी पुस्तकों में बताया गया है कि जो अंतिम पैगम्बर होंगे वो उस व्यक्ति की पीढ़ी से होंगे, जिनकी बलि इब्राहिम ने दी थी। जबकि मुहम्मद और उनके परिवार को तो इस्माइल की पीढ़ी से माना जाता था। क़ुरान कोई एक दिन या एक साथ लिखी गयी पुस्तक नहीं है। क़ुरान की सभी आयतें परिस्थितियों के अनुसार और मुहम्मद की प्रतिक्रिया के अनुसार आती थी।


शाहिदा : मान्यता है कि अल्लाह जीबराइल नाम के फ़रिश्ते को आयत बताकर मुहम्मद के पास भेजते थे। इसमें आश्चर्य की बात तो ये है कि न जाने क्यों जीबराइल फ़रिश्ते केवल मुहम्मद को ही दिखाई देते थे, और उन्हें ही आयत बताते थे। जबकि मुहम्मद को तो लिखना भी नहीं आता था। वैसे तो जो व्यक्ति वास्तव में क़ुरान की आयत लिखते थे, उनको तो अवश्य जीबराइल दिखने ही चाहिए थे। मौलानाओं के अनुसार ये मुहम्मद का चमत्कार है कि मुहम्मद तो पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे, फिर भी उन्हें इतने सारे मज़हबों और परंपराओं की जानकारी थी।  लेकिन ठीक से देखें तो इसमें चमत्कार जैसा क्या है? साफ पता चल रहा है कि मुहम्मद इधर-उधर से बातें सुना करते थे। और जो मुहम्मद सुनते थे, उसके अनुसार क़ुरान की आयतें आती थीं। 


वेदांत : जो आप कह रहे हो, उस समय के लोग भी ये कहते थे कि मुहम्मद साहब जो कुछ भी सुनते हैं उसको घूमाफिराकर इस्लाम का नियम, परंपरा या कहानी बताने लगते हैं। इस बात का प्रमाण क़ुरान सूरह 9 की आयत 61 में मिलता है।


शाहिदा : और विज्ञान की बिग बैंग थ्योरी जो क़ुरान में बताई गयी है, वो कहा से नक़ल करी है? क़ुरान सूरह 21 की आयत 30 में कहा गया है क़ि ये पृथ्वी और आकाश पहले एक साथ बंद थे, और फिर अल्लाह ने उसे खोल दिया, यही बात वैज्ञानिक भी मानते हैं।


वेदांत : ये आपका भ्रम है कि ये इस्लाम की मान्यता है। जबकि इस प्रकार से ही सनातन हिन्दू धर्म और कई सारे अन्य मज़हबों में भी बताया गया है। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ के भाग 10 सूक्त 129 मंत्र 3 में भी कहा गया है। कि “ये जगत् तमस रूप मूल कारण यानी एक तत्व में विद्यमान था। उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे। फिर तप यानी अग्नि की महिमा से विश्व उत्पन्न हुआ।” क़ुरान सूरह 21 की आयत 30 को ध्यान से पढ़ोगे तो उसमें लिखा है क़ि, “क्या काफिर नहीं जानते कि ये आकाश और पृथ्वी बन्द थे फिर अल्लाह ने उन्हें खोल दिया, और पानी से हर जीवित चीज़ बनाई।” यहाँ पर स्पष्ट पता चल रहा है कि जो काफिर लोग पहले से जानते थे, उसी बात को ही बताया जा रहा है। पानी से जीवित चीज़ बनाने की बात भी सनातन हिन्दू धर्म के शास्त्रों से ही निकली है। शिव पुराण, भागवत पुराण, यजुर्वेद, ब्राह्मबिंदु उपनिषद आदि, ऐसे कई हिन्दू शास्त्रों में ये बताया गया है कि जीवित प्राणि पानी के द्वारा बने हैं। आज के कई मूर्ख मौलवी लोग इसे क़ुरान का चमत्कार कहकर प्रचार करते हैं। वो अज्ञानी लोगों से कहते हैं कि जो बात आधुनिक विज्ञान आज बता रहा है, वो क़ुरान में 1400 वर्ष पहले ही बता दी गयी थी, तो ये एक चमत्कार है। जबकि क़ुरान में तो ये बाद में आया है, जबकि अन्य मज़हबों में क़ुरान से हज़ारों वर्ष पहले से ऐसी मान्यता है। आदम से विश्व की रचना से लेकर बहुत सारे वैध और अवैध की संकल्पना तक में, इस्लाम ने जिनपर अपना अधिकार करने का प्रयास किया है, वो दूसरे मज़हब में पहले से ही मौजूद था। 99% इस्लाम दूसरे मज़हबों की परम्पराओं और कहानियों से बना है। मुस्लमान लोग जो ‘खतना’ करवाते हैं वो भी अरब, अमरीका, अफ्रीका और यहाँ तक कि भारत देश में भी लोग हज़ारो वर्षों से करवाते आये हैं। 


शाहिदा : क्यों? जब ये इस्लाम का भाग है तो  अन्य मज़हब के लोग इसे क्यों करवाते थे?


वेदांत : क्योंकि खतना की प्रथा इस्लाम का भाग बाद में बनी थी। इस्लाम से पहले यहूदी मज़हब में भी खतना करवाया जाता था, और यहूदी लोग इसे ‘ब्रित मिलाह’ कहते हैं। लेकिन यहूदी मज़हब से भी पहले के लोग विशेष तौर पर दो बिमारियों के इलाज के रूप में खतना करवाते थे। जिन्हें आज ‘फैमोसिस’ और ‘पैराफैमोसिस’ के नाम से जाना जाता है। ये बीमारी अधिक होने के कारण कई स्थानों पर खतना की संस्कृति ही बन गयी थी। इस्लाम जिस स्थान पर उत्पन्न हुआ, वहाँ भी मुहम्मद के जन्म लेने के पहले से ही लोग खतना करवाया करते थे। इसलिए इसे सुन्नत कहा गया है, न कि फर्ज़। 

शाहिदा : मौलवी ज़ाकिर नाइक ये दावा करते हैं, कि क़ुरान में पहले से ही बता दिया गया था क़ि पृथ्वी का आकार गोल है। इसके लिए वो क़ुरान सूरह 79 की आयत 30 के बारे में बताते हैं। उनके अनुसार इस आयत में कहा गया हैं क़ि पृथ्वी शुतुरमुर्ग के अंडे के आकार की है? इसे आप कैसे देखते हैं?


वेदांत : क्या आपने क़ुरान की ये वाली आयत को पढ़ा है?


शाहिदा : जी! मैंने पढ़ी है।


वेदांत : तो क्या इस आयत में वास्तव में ऐसा कुछ लिखा हुआ है कि पृथ्वी शुतुरमुर्ग के अंडे के आकार की है?

शाहिदा : वास्तव में इस आयत में ऐसा लिखा है कि “इस पृथ्वी को हमने फैलाया है।” इस्लाम के बड़े-बड़े विद्वान् पूर्वजों ने भी सदियों से ये दावा किया है क़ि पृथ्वी गोल नहीं बल्कि चपटी है।


वेदांत : बस यही बात है, कि अज्ञानी लोग किसी के कुछ भी बोल देने को सत्य मानने लगते हैं। वास्तव में उस आयत में ये कहा गया हैं क़ि अल्लाह ने धरती को फैलाया है। अंडे जैसा तो कुछ लिखा ही नहीं हुआ। लेकिन ज़ाकिर जैसे नालायक लोग ये जानते हैं कि अधिकांश मुसलमान लोगों को भी अरबी भाषा ठीक से नहीं आती। तो वो अरबी भाषा के किसी भी शब्द को शुतुरमुर्ग का अंडा बता देंगे, तब भी लोग उनकी बात का अकारण ही विश्वास भी कर लेंगे। जबकि लोगों को ऐसे अंधा होके विश्वास नहीं करना चाहिए। उनको चाहिए कि उन्हें जो भी भाषा आती है, उस भाषा में पुस्तक को पढ़कर सच जान ले। विशेष तौर पर ऐसे व्यक्ति पर तो विश्वास करना ही नहीं चाहिए जो अध्यात्म के नाम पर अइयाशी और लड़कियों का प्रचार करता हो, तथा नरक का डर दिखाकर अपनी बात स्वीकार करवाने के लिए कहता हो।


शाहिदा : इसका अर्थ है कि ज़ाकिर ने अनेकों अज्ञानी और मुर्ख लोगों को भ्रमित किया है।


वेदांत : वो केवल धन देकर बुलाये हुए लोगों को मूर्खों वाले तर्क देकर उनकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए कहता है। जिससे अन्य अज्ञानी लोग भी भ्रमित हो जाते हैं। वो विश्वभर के लोगों को शास्त्रार्थ की चुनौती देता है, पर जब वास्तव में हम उसको चुनौती देकर उसके साथ तर्क-वितर्क करना चाहते हैं तो वो 15 मिनट वीडियो कॉल पर आने के लिए तैयार नहीं होगा। आप चाहें तो स्वयं प्रयास करके देख लो, हम लोग तो पहले ही बहुत प्रयास करके देख चुके हैं। हम न केवल उसे धार्मिक बहस की खुल्ली चुनौती दे चुके हैं, बल्कि शास्त्रार्थ के लिए हाथ-पैर जोड़कर  विनती भी कर चुके हैं। पर उसे पता है कि अगर वो 15 मिनट के लिए भी हमारे सामने आया, तो हमारे शास्त्रार्थ के प्रहार से उसको ह्रदय घाट यानी हार्ट अटैक आ सकता है।


शाहिदा : मूझे ये जानकर काफी आश्चर्य हो रहा है जिन विषयों को मैं केवल इस्लाम का भाग समझती थी, वो सब बहुत पहले से दूसरे मज़हबों में मौजूद है। पर इस्लाम में ऐसी मान्यता भी है कि जो अन्य मज़हब हैं उनमें भी कोई न कोई पैग़म्बर आये थे, लेकिन वो अंतिम नहीं थे। इसलिए ही इस्लाम और उनमें समानताएं हैं।


वेदांत : ऐसे तो कोई भी व्यक्ति ये दावा कर सकता है। पाकिस्तान में एक व्यक्ति हैं जो ये दवा करते हैं क़ि वो अंतिम पैग़म्बर हैं, मुहम्मद भी एक पैग़म्बर थे लेकिन वो अंतिम नहीं थे, तो? वास्तव में हमारा सनातन धर्म जो समय के प्रारम्भ से है, वो ही वास्तविक है, इस्लाम तो केवल 1400 वर्ष पहले ही बना है।


शाहिदा : मान्यता है क़ि इस्लाम तब से था जबसे मनुष्य ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है, यानी केवल 1400 वर्ष पहले ही इस्लाम नहीं बना है।


वेदांत : क्या आप जानते हो कि मैंने इस पृथ्वी पर कब जन्म लिया था? मैंने इस पृथ्वी पर तब जन्म लिया था, जब यहाँ कोई अन्य मनुष्य भी नहीं था। मैं ही विश्व का पहला मनुष्य हूँ, बाइबिल में जिस ‘ऐडम’ के विषय में बताया गया है, वो मैं ही हूँ। 


शाहिदा : मैं जानती हूँ कि आप मज़ाक कर रहे हैं, और मैं आपका इशारा भी समझ गयी हूँ। 


वेदांत : तो ऐसे हवाई बातें और कहानियाँ बना-बनाके दावे तो कोई भी कर सकता है। मुसलमान लोग बस अपने मन को तसल्ली देने के लिए ऐसा सोचते हैं। वास्तविकता तो यही हैं कि इस्लाम 1400 वर्ष पहले ही बना है।


शाहिदा : तो क्या आप स्पष्ट रूप से ये कहना चाहते हो कि मुहम्मद ने अपने आप से ही मनघडंत दूसरे मज़हबों की नक़ल करके इस्लाम या क़ुरान को बनाया है? हालांकि अब मुझे तो ऐसा ही लगने लगा है।


वेदांत : मैं व्यर्थ में ऐसा कुछ नहीं कहना चाहता, मैं बस ये समझाना चाहता हूँ, कि किसी भी अनावश्यक या अभद्र परंपरा तथा मान्यता का पालन मत कीजिये। इस्लाम को पूर्ण रूप से सही सिद्ध करने के लिए अज्ञानी लोगों को मूर्खों वाले वैज्ञानिक तर्क देकर, भ्रम में नहीं डालना चाहिए। व्यर्थ की थ्योरी और व्यर्थ के दूसरे मज़हब से नकल किये हुए वैज्ञानिक सिद्धान्तों को अपना बताना कोई बड़ी बात नहीं है। पर इस्लाम के अपने स्वयं के वास्तविक सिद्धान्त - जन्नत के भोग तथा जहन्नुम का डर, 72 हूरें यानी वो लड़कियां जो जन्नत में भोग के लिए पुरुषों को मिलेंगी, पुरुषों के चार विवाह, पुरुषों का गुलाम लड़कियों से हमबिस्तरी, तीन तलाक़ की प्रथा आदि - ये सब हैं। जिन्हें आज का समझदार व्यक्ति तो स्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए अधिकांश मौलवी लोग सीधा ही मुसलमानों को इस्लाम के मूल सिद्धांत न बताकर विज्ञान के नाम पर भ्रमित करते रहते हैं, ताकि लोग वैज्ञानिक तर्कों से आकर्षित होकर न चाहते हुए भी इन नियमों को स्वीकार कर लें। चालाक मौलाना लोग चाहते हैं कि सामान्य अज्ञानी और मुर्ख लोग ये जानकर भ्रम में पड़ जाएं, क़ि जो सिद्धांत वैज्ञानिक आज सिद्ध कर रहे हैं, वो तो क़ुरान में 1400 वर्ष पहले से लिखा हुआ है। बस इसलिए ही क़ुरान सच में ईश्वर से भेजी हुई पुस्तक सिद्ध होती है। वो ऐसा इसलिए करते हैं, ताकि वो इस्लाम की असामान्य कुप्रथा जैसे पुरुषों की चार शादियां, तीन तलाक़ और यौन गुलामी को भी उचित मानना शुरू कर दें। क्योंकि यही कुप्रथाएं ही तो मौलानाओं की अइयाशी का कारण है। जबकि सत्य तो ये है कि वो वैज्ञानिक सिद्धांत क़ुरान से कई हज़ारों वर्ष पहले से दूसरे मज़हब में मौजूद हैं। क्या आप जानते हो क़ि मुहम्मद ने चांद के दो टुकड़े करे थे?


शाहिदा : जी हाँ।


वेदांत : लेकिन क्या आप ये जानते हो क़ि उनसे पहले कितने लोगों ने चांद के टुकड़े करे थे? 


शाहिदा : नहीं! क्या अन्य लोगों ने भी चांद के टुकड़े करे थे? 


वेदांत : जी बिलकुल! मैंने अब तक 6 मज़हबों में चांद के टुकड़े होते हुए देखे हैं, यानी इसके विषय में पढ़ा है। और वो सारे मज़हब मुहम्मद के जन्म लेने से, यानी 1400 वर्षों से भी बहुत पहले के हैं।


शाहिदा : पर क्या करें ये अन्धविश्वासी लोग तो कहते हैं कि ईमान के विषय में संदेह नहीं करना चाहिए। पर क्या नासमझी और मूर्खता को ही ईमान कहते हैं? इस्लाम के अनुसार अल्लाह ने लगभग 124,000 पैगम्बरों को पृथ्वी पर इस्लाम समझाने के लिए भेजा था। लेकिन बाकी पैगम्बर विश्व को पूर्ण इस्लाम का सिद्धांत समझाने में असफल रहे, पर मुहम्मद अंतिम पैगम्बर थे और उन्होंने ईश्वर का ये कार्य कर दिया। इसका अर्थ तो ये हुआ-ना कि अल्लाह ने मुहम्मद से पहले इस्लाम समझाने के लिए स्वयं 124,000 ऐसे लोगों को चुना जो इतनी शक्तियां होने के बावजूद भी असफल रहे? अल्लाह ने स्वयं इतने सारे गलत लोगों का चुनाव किया? तो फिर हम ये क्यों मान लें कि मुहम्मद ही अंतिम पैग़म्बर हैं और उन्होंने पूर्ण रूप से उचित कार्य किया है? जब ईश्वर 124000 गलतियां कर सकते हैं, तब तो यहाँ भी गलती हो सकती है। क्योंकि मुहम्मद के बताए हुए सिद्धान्त भी तो सामान्य तौर पर माने नहीं जा सकते। इस्लाम के अनुसार मुहम्मद द्वारा बताए गए सिद्धान्त को सत्य मानने के लिए व्यक्ति के अंदर ईमान यानी जहन्नुम का डर और जन्नत का लालच होने की बहुत अधिक आवश्यकता है, अन्यथा कोई भी उनके सिद्धान्त को सच नहीं मान सकेगा। इस विषय पर मौलवी कहते हैं कि अल्लाह ने मुहम्मद से पहले इतने सारे पैगम्बरों को पृथ्वी पर इसलिए भेजा था, क्योंकि इसके पीछे बहुत तार्किक कारण है। उनके अनुसार जैसे एक छोटे 7-8 वर्षों के बच्चे को सीधा ही बारहवी कक्षा का ज्ञान देना व्यर्थ होगा, उसी प्रकार इस्लाम से पहले अगर उससे कम दर्जे के सिद्धांत नहीं समझाये जाते, तो लोगों को इस्लाम समझ नहीं आता। लेकिन इस्लाम के सिद्धांत में ऐसा क्या है जिसे जानने के लिए पहले स्वयं को तैयार करना होगा? मुहम्मद ने तो केवल इतना ही सिखाया है कि इस्लाम में बताये नियमों और परंपराओं को सच मान लेने वाले व्यक्ति को जन्नत की अइयाशी मिलेगी, और न मानने वाले व्यक्ति को नरक जाना पड़ेगा। ये बात समझना कितना कठिन है, जो इसके लिए पहले तैयार होना पड़े? बल्कि इस प्रकार की बात को तो केवल मुर्ख लोग ही सच मान सकते हैं। 


वेदांत : ऐसा अगर आप भगवद गीता के लिए कहो तो सही होगा। क्योंकि भगवद गीता के केवल बहुत अधिक समझदार व्यक्ति को ही समझ आ सकती है। 


शाहिदा : इस्लाम में कहा गया है क़ि अच्छे कर्म करो, पड़ोसियों की सहायता करो, दान करो।  क्या आप इन सब बातों को भी अनुचित मानते हैं?


वेदांत : ये सब बातें तो हर मज़हब में कही जाती हैं, इसलिए ये वास्तविक इस्लामिक सिद्धांत नहीं है। हर मज़हब में वो सब अच्छी बातें कही गयी है जो इस्लाम में मौजूद हैं। ऐसी अच्छी-अच्छी बातें तो एक शराबी व्यक्ति भी शराब पी कर और अधिक उत्तम प्रकार से कर सकता है। पर वास्तविक इस्लाम के सिद्धांत क्या है, ये तो मैंने आपको बता ही दिया है। बाकी तो बस हवाई बातें है,  जो अन्य हर मज़हब में बहुत पहले से उपलब्ध हैं। सनातन हिन्दू धर्म में ‘वासुदेव कुटुंबकम’ कहा जाता है। इसका अर्थ होता हैं क़ि सम्पूर्ण विश्व ही हमारा परिवार है। यहाँ  तक क़ि कीड़े, पशु, पक्षी, मछली आदि सभी को ही अपना परिवार समझना चाहिए। इसके इलावा कहा जाता हैं क़ि ‘अतिथि देवो भवः’, यानी अतिथि देवताओं के समान होते हैं। भागवतम् में कहा गया हैं कि अगर तुम्हारे सामने कोई व्यक्ति भूखा है और तुम स्वयं भूखे रहकर अपना खाना उस व्यक्ति को देदोगे, तो तुम्हे परम संतुष्टि का अनुभव होगा। तथा अगर कोई जानवर भी तुम्हारे सामने भूखा है, और तुम उसके पेट भरने की क्षमता रखते हो, फिर भी अगर उसे तुम भोजन नहीं करवाते तो तुम नरक के अधिकारी हो, आदि-इत्यादि। सनातन धर्म में तो इस्लाम से कई गुना अधिक अच्छी बातें कही गयी हैं। हमें किसी मज़हब को पूर्ण रूप से छोड़ना नहीं है, बस हमें किसी भी मज़हब के प्रत्येक नियम या मान्यता का पालन नहीं करना चाहिए। जो अच्छी बातें हैं, उसका पालन करो और जो गलत या तर्कहीन है उसे अनदेखा करो। जैसे भारत के पूर्व राष्ट्रपति ‘अब्दुल कलाम’ ने मुसलमान होने के बावजूद भी अपने जीवन में बहुत सारे ऐसे कार्य किये थे, जो या तो इस्लाम में हराम है या फिर सनातन धर्म से संबंधित हैं। यहाँ तक कि बचपन से ही वो हिन्दू देवी-देवताओं के भजन और मंत्र सुनना बहुत पसंद किया करते थे। इस्लाम में मांसाहार खाना वैध है, जबकि कलाम मांस खाने को अन्याय समझते थे। पर फिर भी उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से किसी मज़हब के विरोध में कभी कुछ नहीं कहा। क्योंकि वो धर्म के वास्तविक अर्थ को समझ गए थे। इसपर भगवान श्री कृष्ण गीता के अध्याय 12, श्लोक 17 में कहते हैं - “जो शुभ यानी हलाल तथा अशुभ यानी हराम, दोनों ही प्रकार के कर्मों का त्याग कर देता है, वो व्यक्ति मुझको प्रिय है।" इस श्लोक में कृष्ण ने केवल अशुभ ही नहीं, बल्कि शुभ कर्मों का भी त्याग करने के लिए कहा है। यहाँ कृष्ण का एक तात्पर्य निष्काम कर्म से है, और दूसरा तात्पर्य परम्पराओं से भी है। आज भी अधिकतर धार्मिक लोग परंपरा को ही धर्म समझते हैं। जबकि परंपरा धर्म के लिए तो अवश्य होती है, पर आवश्यक नहीं कि प्रत्येक परंपरा में धर्म हो। क्योंकि विश्व का तो नियम ही परिवर्तन, यानी निरंतर बदलते रहना है।