(नौवा विषय)

इस्लाम से इंकार



शाहिदा : चलिए तो अब मूझे बताइये क़ि मुहम्मद को ही अंतिम पैगम्बर मानने से आपको क्या आपत्ति है? यानी आपको उनके चरित्र में या इस्लाम में क्या-क्या अनुचित लगता है? मैं ये बात समझ गयी हूँ कि आप इस्लाम को भी बहुत अच्छे से जानते हो। तो इस्लाम के विषय को ठीक से तर्क और सबूतों के साथ बताओं ताकि मैं भी सभी मुसलमानों के जैसे केवल डर और मज़बूरी के कारण इस्लाम को स्वीकार करने से बच पाऊं। 


वेदांत : मुझे मुहम्मद को अंतिम पैग़म्बर मानने में कोई आपत्ति नहीं होती अगर उनके बताये हुए नियम वास्तव में आध्यात्मिक होते। क्योंकि जो अंतिम हैं वो तो शुद्ध अध्यात्म ही होना चाहिए। जबकि इस्लाम में कुछ ऐसे मूल नियम हैं, जिसे कोई भी समझदार व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता, और उन नियमों को आज किसी भी तर्क से सही सिद्ध करना संभव नहीं है। अगर आप उन्हें सही सिद्ध करने का प्रयास करोगे तो एक सभ्य समाज के साथ, स्वयं की दृष्टि में भी गलत और घटिया सिद्ध हो जाओगे। क्योंकि वो नियम उस ज़माने के नासमझ और असभ्य लोगों में, केवल थोड़ा सा सुधार करने के लिए बनाये गए थे। पर जन्नत की अइयाशी का सुनने के कारण जिन मुसलमानों की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है, वो चाहते हैं कि आज के पढ़े लिखें समझदार लोग भी अपनी बुद्धि उनके जैसे भ्रष्ट करके पिछड़े समाज के नियमों का पालन करें।


शाहिदा : हिन्दू धर्म में भी तो कई ऐसे नियम और परंपरा हैं जो इस्लाम से मिलते-जुलते हैं।


वेदांत : आप उल्टा बोल रहे हो, जबकि आपको ऐसा कहना चाहिए कि इस्लाम में कई ऐसे नियम हैं जो सनातन धर्म से मिलते-जुलते हैं। क्योंकि इस्लाम केवल कुछ सदियों पहले ही स्थापित हुआ है, जबकि सनातन हिन्दू धर्म की शुरुवात का पता लगा पाना ही संभव नहीं है। केवल इस्लाम ही नहीं बल्कि सनातन धर्म और विश्व के प्रत्येक मज़हब में आपको समानता तो मिलेगी ही, क्योंकि सबका स्रोत सनातन है। पर अंतरों से ही वास्तविक सिद्धांतो के बारे में पता चलता है, और उचित-अनुचित का ज्ञान प्राप्त हो पाता है।


शाहिदा : आप ऐसा क्यों कह रहे हो कि इस्लाम के नियम पालन करने लायक नहीं हैं?


वेदांत : क्योंकि अगर कोई आज इस्लाम के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करने का प्रयास करेगा, तो भारत और सभी लोकतांत्रिक देशों के संविधान अनुसार उसे जेल हो जाएगी। मैं जानता हूँ कि ये बात तो अधिकांश मुसलमान लोग स्वयं भी समझते हैं, बस उनके अंदर सच को सबके सामने सीना तान कर स्वीकार कर लेने का, और गलत को गलत कहने का साहस नहीं है।



शाहिदा : हाँ! क्योंकि बचपन से ही हम मुसलमानों के दिमाग़ में जन्नत की अइयाशी और जहन्नुम के डर को इस प्रकार से घुसेड़ दिया जाता है, कि अध्यात्म के विषय में लोगों की बुद्धि कार्य करना लगभग बंद ही कर देती है। मुसलमान लोग जन्नत की अइयाशी और जहन्नुम के डर के कारण सोचने-समझने की क्षमता खो देते हैं - मुझे ऐसा लगता है।


वेदांत : इस्लाम के सभी मूल सिद्धांतों का भगवद गीता के कुछ श्लोक बहुत बुरी तरह से खंडन करते हैं। क्योंकि स्पष्ट है, इस्लाम को सुनने वाले लोग और इस्लाम जिस स्थान पर उत्पन्न हुआ था - उनमें, और गीता को सुनने वाले व्यक्ति, तथा जहां पर गीता का ज्ञान दिया गया - उस स्थान में बहुत अंतर था। यानी अलग-अलग समय, स्थान, परिस्थिति और व्यक्तित्व होने के कारण ही हर पंथ के सिद्धांत अलग-अलग प्रकार के होते हैं।


शाहिदा : क्या आप इस्लाम को पूर्ण रूप से अनुचित, और हिन्दू धर्म को ही पूर्ण रूप से उचित मानते हो?


वेदांत : नहीं! मैं केवल भगवद गीता के सिद्धांतों से 100% सहमत हूँ, लेकिन मैं दूसरे किसी भी सिद्धान्त से पूर्णतः सहमत या असहमत नहीं हूँ। क्योंकि प्रत्येक परंपरा या प्रथा किसी समय के लिए ठीक होती है, और किसी काल के लिए अनुचित होती है। हम केवल भगवद गीता के द्वारा ही सही और गलत को समझ सकते हैं। 


शाहिदा : केवल गीता ही क्यों? और क़ुरान क्यों नहीं? 


वेदांत : क्योंकि भगवद गीता किसी विशेष मज़हब या सम्प्रदाय की पुस्तक नहीं है। ये क़ुरान, बाइबिल या तोराह के जैसी मज़हबी तथा राजनैतिक पुस्तक बिलकुल नहीं है। ये एक आध्यात्मिक पुस्तक है, इसमें भगवान कृष्ण ने हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि जैसे किसी मज़हब के बारे में बात नहीं करी है। बल्कि भगवद गीता तो शरीर और शरीर के परिचय से भी ऊपर उठाने वाला दिव्य ज्ञान है। गीता में विशेष तौर पर आत्मा, परमात्मा, निस्वार्थ सेवा, निष्काम भक्ति को ही समझाया गया है। क्योंकि सनातन का अर्थ होता है क़ि ‘वो जो सत्य है’, यानी जिसकी न कभी शुरुवात हुई है और न कभी अंत होगा। जो हमेशा से है और हमेशा रहेगा, उसे ही सनातन धर्म कहा गया है। हालांकि ये तो प्रत्येक धर्म या सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि बस हमारी परंपरा ही 100% सही है। लेकिन जैसा मैंने अभी बताया है कि गीता एक अध्यात्म की पुस्तक है, जबकि इस्लाम एक मज़हब है। मज़हब और अध्यात्म में अंतर को समझने के लिए आप इतना समझ लीजिए, कि इस्लाम, ईसाई और यहूदी जैसे मज़हब एक कैद और बंधन के समान हैं, वहीँ सनातन धर्म स्वतंत्रता और मुक्ति को कहा जाता है। सनातन धर्म ही अध्यात्म की वास्तविक परिभाषा है। अज्ञानता से बने मज़हब और परंपराओं के कारण ही हम लोगों को सबसे अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे कुछ सदियों पहले जो सती प्रथा हुआ करती थी, जिसमें पति की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी को भी उसकी चिता में जला दिया जाता था। हालांकि भारतीय संस्कृति में सती प्रथा आवश्यक नहीं थी, केवल कुछ स्त्रियां अपनी इच्छा से ही अपने पति की मृत्यु होजाने पर आत्महत्या कर लिया करती थीं। ये सोचकर कि अब मैं जीवित रहूं भी तो किसके लिए? पर आज से कुछ सदियों पहले ये प्रथा लड़कियों के शोषण का कारण बन गयी थी। लेकिन इस प्रथा को समाप्त करने वाले लोग भी स्वयं हिन्दू ही थे। क्योंकि हिन्दू धर्म में परिवर्तन को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। इसलिए अपनी प्रत्येक कुप्रथा का विरोध करके उसे हिन्दू लोग स्वयं ही नष्ट कर देते हैं। भगवद गीता और गीता का पालन करने वाले लोग किसी भी मज़हब, परंपरा या नियम के सगे नहीं हैं। जहां भी कुछ अनुचित दिखता है, उसी समय विरोध करते हैं। जबकि मुस्लमान लोग तो इस्लाम की ‘हलाला’ और ‘तीन तलाक़’ जैसी घटिया परंपराओं को आज भी उचित सिद्ध करने में लगे रहते हैं। क्या आप जानते हो कि हलाला प्रथा क्या है? 


शाहिदा : इसमें जब पति अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ कह दे तो उनका तलाक़ हो जाता है। ये एक साथ तीन बार तलाक़ कहकर भी हो सकता है, और कुछ दिनों के अंतर में भी हो सकता है। एक बार जब पुरुष - स्त्री को तलाक दे-देता है तीन बार तलाक़ कहकर तो उसके बाद वो एक दूसरे के साथ नहीं रह सकते। इतना ही नहीं बल्कि तब-तक फिर से शादी भी नहीं कर सकते जब तक उस महिला की शादी किसी दूसरे पुरुष से न हो जाये, और वो दूसरा पुरुष भी उसे तलाक न देदे। इसी परंपरा को पूरा करने के लिए मौलवियों का या किसी दूसरे व्यक्ति का सहारा लिया जाता है। क्योंकि अधिकतर तलाक़ क्रोध में ही दिए जाते हैं, और क्रोध में तो मनुष्य को पता ही नहीं चलता कि वो क्या कर रहा है। इसलिए कुछ दिनों के बाद जब पुरुषों को अपनी गलती का अहसास होता है, तब वो हलाला परंपरा को पूरा करने के लिए मौलवी या किसी अन्य पुरुष के साथ अपनी ही पत्नी की एक दिन और एक रात के लिए शादी करवा देते हैं। पर इस्लाम के अनुसार शादी तब तक सम्पूर्ण नहीं मानी जाती जबतक उनके बीच हमबिस्तरी न कर लिया जाये। क्योंकि अधिकतर महिलाओं के पास दुबारा से अपने पहले पति के साथ रहने के इलावा कोई और दूसरा विकल्प नहीं होता है, उसे मजबूरी में ये करना ही पड़ जाता है। फिर एक दिन के बाद वो दूसरा पुरुष भी जब महिला को तलाक दे देता है, तब जाके वो पहले पति से दुबारा शादी कर सकती है। लेकिन मौलाना लोग कहते हैं कि इस प्रकार पहले से तय करके हलाला करवाना इस्लाम में ठीक नहीं माना जाता है। और ये परंपरा पुरुषों को क्रोध में निर्णय लेने के कारण दण्ड देने के लिए है। 


वेदांत : पर अगर पहले से तय करके हलाला करना इस्लाम में उचित नहीं है, तो फिर इसके इलावा अब वो पति-पत्नी दुबारा एक साथ कैसे रह सकते हैं? 


शाहिदा : इसके इलावा तो कोई अन्य विकल्प नहीं है। 


वेदांत : यानी हलाला को उचित न मानने के बावजूद भी ये करवाना आवश्यक हो जाता है। और इसमें पुरुषों को कौनसा दण्ड मिलता है? बल्कि पुरुषों की गलती का दण्ड तो महिलाओं को भुगतना पड़ता है। क्या ईश्वर या अल्लाह को साक्षी मानकर पढ़ा गया निकाह इतना कमज़ोर है कि केवल तीन 3 शब्दों में ही टूट जाता है?


शाहिदा : इस्लाम में बदलाव नहीं किये जा सकते, इसलिए अनुचित परंपराओं का पालन करना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि मुसलमानों का मानना है कि ईश्वर के आदेश को बदलना मूर्खता और अपराध है।


वेदांत : लेकिन आज की जीवन शैली और परिस्थितियों के अनुसार हमें इस्लाम के असभ्य और मूर्खता से भरे नियमों में सुधार क्यों नहीं करना चाहिए? क्या आपको मूर्खों के जैसे बुद्धि बंद करके ऐसे नियमों का पालन करने में आनंद आता है?


शाहिदा : ऐसा कहा जाता है कि अल्लाह के नियम पत्थर की लक़ीर के समान हैं। जो अल्लाह ने क़ुरान में कह दिया उसमें कोई बदलाव नहीं कर सकता, या करवा सकता। 


वेदांत : और अगर मैंने आपकी इस बात को क़ुरान के द्वारा ही गलत सिद्ध कर दिया तो?


शाहिदा : क्या वास्तव में?


वेदांत : मैं जब भी कोई दावा करता हूँ, तो इतना समझ लीजिये क़ि उसे कोई भी व्यक्ति गलत सिद्ध नहीं कर सकता। वो इसलिए नहीं क्योंकि मैं कोई बहुत बड़ा विद्वान् हूँ, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं हज़ारों बार अनुसन्धान करने के बाद ही कोई दावा करता हूँ। क़ुरान सूरह 58 आयत 12 में आपके अल्लाह कहते हैं क़ि “जो व्यक्ति मुहम्मद से अकेले में कोई बात करना चाहता हो, वो मुहम्मद को धन यानी पैसे दान दे।” लेकिन ये आयत आने के बाद वहाँ पर उपस्थित कुछ लोगों ने मुहम्मद को ढोंगी समझना शुरू कर दिया। और उन लोगों ने इस्लाम छोड़ने का भी निर्णय कर लिया। उनको लगने लगा कि मुहम्मद भी अन्य ढोंगी बाबाओं के जैसे धन कमाने के लिए अपने-आप को ईश्वर का पैग़म्बर बता रहे हैं। ये सब देखकर शायद अल्लाह को भय होने लगा कि कही इस चक्कर में लोग इस्लाम न छोड़ दें। तो फिर अल्लाह ने इस से अगली ही आयत यानि सूरह 58 की आयत 13 में कहा क़ि “क्या तुम इस बात से डर गए कि मुहम्मद से अपनी गुप्त बात-चित से पहले धन दो? तो तुमने ये नहीं किया, पर अल्लाह ने तुम्हें क्षमा कर दिया इसलिए नमाज़ क़ायम करो”।


शाहिदा : इस आयत से आप क्या सिद्ध करना चाहते हो? 


वेदांत : यही कि जब स्वयं अल्लाह ही परिस्थिति को देखकर अपनी बात से पलट गए, यानी उन्होंने लोगों के विरोध के कारण क़ुरान की आयत को ही बदल दिया, तो ऐसा हम क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि आज तो हमारे पास कोई पैग़म्बर भी नहीं है, जिसको बताकर अल्लाह क़ुरान में बदलाव करवा सकें। उस समय के लोगों को समस्या हुई तो अल्लाह ने मुहम्मद द्वारा आयत पलटवा दी। पर आज के समय में ज़ब लोगों को इस्लाम के किसी नियम से समस्या होती है, तो अल्लाह आयत कैसे पलटवाएंगे? वास्तव में परिवर्तन न करने की सोच ही अपने आप में मूर्खता है। क्योंकि आज मज़बूरी में ही सही, पर मुस्लमान लोगों को भी परिवर्तन को स्वीकार करना ही पड़ता है। जैसे अक्सर आपने मुसलमानों को ‘मुझे मुसलमान होने पर गर्व है' कहते हुए सुना होगा। ये बोलकर वो अकारण प्रसन्न और गर्वित तो होते हैं, लेकिन उन्हीं लोगों से जब इस्लाम का वास्तव में पालन करने के लिए कहा जायेगा, तब 99.9% लोग अस्वीकार कर देंगे। क्योंकि उन लोगों को जाने या अनजाने में ये पता है कि इस्लाम के नियम आज के समय के लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं हैं, अगर हम उन नियमों का पालन करेंगे तो हमें जेल जाना पड़ेगा।


शाहिदा : जैसे?