(बारहवाँ विषय)
मांसाहार और डेयरी उत्पाद
शाहिदा : इस्लाम में मान्यता है कि मांस खाना वैध है, क्योंकि अल्लाह या ईश्वर ने कुछ जानवरों और पक्षियों को हमारे खाने के लिए ही बनाया है। जो हलाल जानवर या पक्षी हैं, उन्हें खाना गलत नहीं है।
वेदांत : क्या तुम ईश्वर को इतना नासमझ समझते हो कि वो खाने के लिए मनुष्य जैसे ही अंगों वाले जीवित प्राणी बनाएंगे? मेरा मानना ये है, कि इस्लाम में मांसाहार खाना इसलिए वैध है क्योंकि जहाँ इस्लाम ने जन्म लिया था, वहाँ सामान्य तौर पर सब्ज़ियां उगती ही नहीं थीं। केवल खजूर और गिनती की चीज़ें ही उगा करती थीं। जब सब्ज़ियां उगेंगी ही नहीं तो लोग क्या खाएंगे? मनुष्य का जीवन किसी दूसरे जीव से तो अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए आयुर्वेद में भी कई ऐसी औषधि हैं, जो मांसाहारी है। और सनातन धर्म में क्षत्रियों को, यानी सैनिकों को भी मांस खाने की अनुमति है। जहां पर मांस खाने के सिवा कोई विकल्प ही नहीं है, वहाँ पर क्या खाना सही है और क्या खाना गलत है, ये सोचना सामान्य लोगों के लिए बिल्कुल व्यर्थ होगा। हालांकि हम वैष्णव लोग तो कुछ भी खाने से पहले ये विचार करते हैं कि क्या इसका हमारे आध्यात्मिक जीवन में कोई नकारात्मक प्रभाव तो नहीं पड़ेगा? क्योंकि आयुर्वेद में बहुत स्पष्ट बताया गया है कि क्या खाने से अग्नि तत्व बढ़ता है, और क्या खाने से कम होता है। आयुर्वेद के अनुसार अग्नि तत्व बढ़ने से मस्तिष्क में अशांति, काम वासना यानी हवस, क्रोध यानी गुस्सा जैसे विकार बढ़ते हैं। केवल मांस ही नहीं बल्कि ये हर प्रकार के भोजन पर निर्भर करता है। अधिक खट्टा या बहुत अधिक मसालेदार खाना, प्याज़, लस्सन, मांसाहारी खाना। चाय, कॉफी, शराब और बाकी नशीली चीज़ें, इन सबका सेवन करने वालों में आपको काम वासना और क्रोध बहुत अधिक देखने को मिलेंगे। जबकि काम, क्रोध ही भक्ति के लिए सबसे अधिक भयंकर है। इसलिए क्या खाना उचित है और क्या उचित नहीं है, वैष्णव आचार्यों से ये पहले ही जान लेना चाहिए।
शाहिदा : आपके पास क्या प्रमाण है कि हिंदू धर्म में मांस खाना वैध नहीं है? आपके शास्त्रों में तो कई स्थानों पर पशुओं की बली या क़ुरबानी देने के लिए कहा गया है। और आपके धर्म ग्रंथ जैसे मनुस्मृति आदि में लिखा हुआ है कि मांस खाना अवैध नहीं है।
वेदांत : जो लोग भी ये कहते हैं कि हिंदू शास्त्रों में पशुबली करने या मांस खाने को अवैध नहीं बताया गया है, वो या तो स्वयं ही अज्ञानी है या फिर मिलावटी तथा तामसिक शास्त्रों के कुछ श्लोक जानकर, झूठ बोलकर अपने षड्यंत्र का प्रचार करने के लिए आपको भ्रमित कर रहे हैं। सनातन धर्म में अलग-अलग प्रकार के लोगों में सुधार करने के लिए अलग-अलग प्रकार के ग्रन्थ लिखें गए हैं। तामसिक शास्त्र का अर्थ है, वो पुस्तकें जो मुर्ख और घटिया प्रकार के लोगों में थोड़ा सा सुधार करने के लिए लिखी गयी हैं। उसमें बहुत सारी वो बातें लिखी हैं जो पूर्णतः उचित नहीं हैं, पर तामसिक लोग वास्तव में वैसी विचारधारा को ही पसंद करते हैं। तो ऋषियों ने तामसिक शास्त्रों के द्वारा तामसिक यानी बुरे लोगों का उद्धार करने के लिए, उनमें बस थोड़ा सा बदलाव करदिया। जैसे जो व्यक्ति प्रतिदिन मांस खाता है उसको महीने में केवल एक बार खाने की अनुमति देदी। जो व्यक्ति नास्तिक है उसे ईश्वर को समर्पित करके मांस खाने की अनुमति देदी, ताकि वो ईश्वर कौन है? या धर्म क्या है? इस विषय में जानने के लिए उत्सुक हों और अध्यात्म के मार्ग में धीरे-धीरे प्रगति कर सके।
शाहिदा : ऐसा करने से क्या होगा?
वेदांत : ऐसा करने से बहुत बिगड़े हुए लोगों में थोड़ा सा सुधार होगा। जैसे आपने देखा होगा कि जो भगवान शिव के पुजारी होते हैं, उन्हें शराब, गांजा आदि जैसी नशेली चीज़ों का सेवन करने की भी अनुमति होती है। क्योंकि कृष्ण ने तो अपने भक्त को बस थोड़ा सा नशा करने के लिए भी अनुमति नहीं दी है। अगर कृष्ण भक्त नशा करेंगे, तो उन्हें बहुत अधिक कष्ट और अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। तो कही नशेड़ी लोग पूर्ण रूप से नास्तिक, अधर्मी और कुकर्मी न बन जाएँ, केवल इसलिए शिव के पुजारीयों को भांग, गांजा, शराब आदि का सेवन करने की अनुमति दी जाती है। क्योंकि शिव का कार्य ही ये है, कि वो तामसिक लोगों को अपने ओर आकर्षित करके, उनमें धीरे-धीरे करके सुधार करें। ऐसे में लोग शिवजी के भक्त बने हुए भी नशा करते हैं, पर कही न कही वो लोग आस्तिक होते हैं इसलिए अपराध करने से थोड़ा बचते हैं।
शाहिदा : पर अगर वो लोग पूर्ण रूप से बिना सुधरे ही मर गए तो ये अनर्थ नहीं होगा?
वेदांत : उन लोगों को जो अगला जन्म मिलेगा, उसमें वो पहले से अधिक सुधरे हुए होंगे। उनको प्रकृति की ओर से धार्मिक वातावरण मिलेगा, ताकि वो लोग धीरे-धीरे करके शुद्ध वैष्णव भक्त बन पाएं। 5 से 10 जन्मों तक शिव भगवान का भक्त बनकर अपने में सुधार करने के बाद ही मनुष्य शुद्ध कृष्ण भक्त बन पाता है। तब भगवान शिव स्वयं उस व्यक्ति की प्रीति कृष्ण से जोड़ देते हैं।
शाहिदा : पर आपके शास्त्रों में स्पष्ट रूप से मांस खाने के लिए मना भी तो नहीं किया गया है, और अगर मना किया गया है तो प्रमाण दीजिये।
वेदांत : बिलकुल मना किया गया है। सनातन धर्म के सबसे अंतिम और सबसे महान ग्रंथ भागवत महापुराण और भगवद गीता हैं। ये पूर्ण रूप से सात्विक ग्रन्थ हैं, और इनमें आज तक कोई मिलावट नहीं कर पाया। क्योंकि हर सदी में इनपर टीका लिखी गयी हैं। अब तक 27 से भी अधिक आचार्यों ने इनपर टीका लिखी हैं। इसलिए इनमें मुग़ल और अंगरेज़ लोग भी कुछ मिलावट नहीं कर पाए। यहाँ तक कि प्राचीन महाभारत में कई शास्त्र 1 लाख श्लोक बताते हैं, जबकी आज की महाभारत में 1 लाख दस हज़ार श्लोक मौजूद हैं। इसका तात्पर्य ये है कि अन्य ग्रंथों में कुछ न कुछ गड़बड़ तो अवश्य है। बात रही सबूत की, तो - भागवत महापुराण सकंध 5 अध्याय 26 श्लोक 13 में लिखा है। क़ि “जो लोग अपनी जीभ की तृप्ति के लिए बेचारे जीवित पशु-पक्षियों को पकाके खाते हैं, वो ‘कुम्भीपाक’ नाम के नरक में जाते हैँ। जहाँ उन्हें उबलते हुए तेल में पकाया जाता है।”
शाहिदा : तो मुझे बताइये कि जिन कीड़े-मकोड़ों को हम सामान्य तौर पर मार देते हैं, जैसे मच्छर, खटमल, छिपकली, कॉकरोच आदि। तो क्या उनको मारके पाप नहीं लगता?
वेदांत : निश्चित रूप से पाप लगता है। अगर आप अकारण ही किसी जीव की हत्या करोगे तो पाप अवश्य लगेगा। अगर तुम्हारे घर में कीड़े-मकोड़े घुस गये हैं, जिनसे तुम्हें परेशानी हो सकती है, तो सबसे पहले उन्हें घर से बहार निकालने का प्रयास करो। अगर आप उन्हें घर से बाहर निकालने के स्थान पर, सीधा उसके प्राण हर लेने का प्रयास करेंगे, तो पाप अवश्य लगेगा। और इस पाप के लिए भी आपको नरक में भयंकर दंड भोगना पड़ेगा। इसका सबूत आपको भागवत महापुराण के सकंध 5 अध्याय 26 श्लोक 17 में मिलेगा। जिसमें लिखा है कि “परमेश्वर की व्यवस्था से कीड़े-मकोड़े और मच्छर जैसे निम्न कोटि के जीव-जन्तु मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों का रक्त चूसते हैं। वो ये बात नहीं जानते हैं कि उनका दंश मनुष्य के लिए कितना कष्टदायक है। ज्ञान से संपन्न मनुष्य अगर इन तुच्छ प्राणियों को मारता है या उन्हें पीड़ा देता है, तो वो निश्चित रूप से पाप करता है। भगवान ऐसे व्यक्ति को ‘अंधकूप’ नामक नरक में डालकर दंडित करते हैं।”
शाहिदा : अगर वो हमारे घर में घुसे हैं तो उनको मारने में क्या समस्या है?
वेदांत : कोई पागल मनुष्य अगर आपके घर में घुस जाए तो आप पहले उसको बाहर निकालने का प्रयास करोगे या सीधा उसके प्राण हर लोगे? बताइये क्या करोगे उस समय?
शाहिदा : घर से बाहर निकालने का प्रयास।
वेदांत : तो फिर?
शाहिदा : और हम लोग जिन हरी सब्ज़ीयों को खाते हैं, उनमें भी तो प्राण होते हैं। उनको भी तो कष्ट होता है तब ईश्वर दंड क्यों नहीं देते? ऐसे तो फिर हमें प्रकृति को बचाने के लिए पेड़-पौधों का सेवन भी नहीं करना चाहिए।
वेदांत : मुझे नहीं पता कि आपने ये विज्ञान किस नालायक और गँवार व्यक्ति से सीखा है। विश्व में ऐसा कोई भी वैज्ञानिक नहीं है, जो ये सिद्ध कर पाए कि पेड़, पौधे और हरी सब्ज़ीयों को भी कष्ट होता है। और न ही कोई कभी ये सिद्ध कर सकता है। क्योंकि मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मछली आदि जीवजन्तु के पास पूर्ण शरीर होता है। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर होता है, उसी प्रकार अन्य जीवों का भी शरीर होता है, यानी उनके पास वो सब अंदरूनी भाग मौजूद हैं जो मनुष्य के पास हैं। जबकि पेड़-पौधों के पास ऐसा शरीर है जो केवल बड़ सकता है। माइक्रोस्कोप से देखने पर भी आपको उनके शरीर का मनुष्य जैसा कोई अन्य भाग नहीं दिखेगा। जबकि भले ही किसी व्यक्ति के पास पूरा शरीर हो बस केवल दिमाग़ न हो, तब भी किसी को दर्द का अनुभव नहीं हो सकता। क्योंकि शरीर को दर्द होने का सिग्नल भी दिमाग़ ही देता है। फल और सब्ज़ीयां स्वयं प्रकृति ने ही हमें खाने के लिए दी हैं, जो केवल उपजाऊ मिट्टी में एक बीज डालने पर ही प्रकट हो जाती हैं। हालांकि उन्हें उगाने में भी कुछ जीवों की हत्या होती है, लेकिन वो अप्रत्यक्ष रूप से और मांस के व्यापार की तुलना में कम होती है। हमसे जानें या अनजाने में हिंसा तो होगी ही, इसलिए हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जिसमें कम से कम हिंसा शामिल हो। और तामसिक भोजन से तो निश्चित रूप से दूर रहना चाहिए, क्योंकि उससे आपकी बुद्धि ही भ्रष्ट होगी। जो लोग मांस का सेवन करते हैं वो मरने के बाद तो दूर की बात है, बल्कि जीतेजी भी नरक जैसे जीवन का अनुभव करते हैं। मांस खाना सबसे भयंकर पाप है। अगर आप मांस खाते हो तो भगवान की पूजा, भक्ति करना आपके लिए बिलकुल व्यर्थ है। माता-पिता को चाहिए कि वो किसी भी स्थिति में अपने बच्चों को मांस न खाने दें। जो माता-पिता अपने बच्चों को मांस और अंडा खाने की अनुमति देते हैं, वो इस विश्व के सबसे नीच माता-पिता होते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों के ही शत्रु होते हैं। उनको ये समझ लेना चाहिए कि मांस खाने के कारण आपकी ही संतान को इतना भयंकर कष्ट भोगना पड़ेगा जिसकी वो कल्पना भी नहीं कर सकते। और जब प्रकृति की ओर से मांस भक्षण करने का दण्ड मिलेगा, तो उन्हें भगवान भी नहीं बचा सकते। क्योंकि भगवान स्वयं भी मांस खाने वाले लोगों की पूर्णतः रक्षा नहीं कर सकते। फिर चाहे जितनी मर्ज़ी पूजा या भक्ति करलो, पर इसका दण्ड तो किसी भी स्थिति में भुगतना ही पड़ेगा।
शाहिदा : अगर माता-पिता रोकने का प्रयास भी करें, उसके बावजूद भी तो लोग बाहर से मांस खा सकते हैं।
वेदांत : माँ-बाप चाहें तो अपने बच्चों का बहुत उत्तम प्रकार से चरित्र निर्माण कर सकते हैं। उनको चाहिए कि बचपन से ही उनके बच्चों के दिल में करुणा और दया भरें। उनको अन्य लोगों के दर्द में स्वयं का दर्द अनुभव करना सिखाएं। उनको ये समझायें कि जब किसी जीव की हम हत्या करते हैं तो उसे कितना कष्ट होता है, और वो भी केवल हमारे स्वार्थ के कारण। अपनी संतान को भले ही आप शक्तिशाली और दिलेर न बनाओ, पर उसके ह्रदय में भरपूर करुणा स्थापित करो। उसको ये समझाओ कि स्वार्थ में कुछ सुख नहीं, बल्कि दूसरों की निष्काम सेवा करने में ही वास्तविक सुख का अनुभव होता है। जब किसी व्यक्ति के ह्रदय में बचपन से ही करुणा स्थापित की जाएगी, तो निश्चित रूप से वो व्यक्ति कभी मांस का सेवन नहीं कर पायेगा।
शाहिदा : आप एक प्रकार से ये कह रहे हो कि प्रत्येक व्यक्ति का चरित्र निर्माण उसके माँ-बाप करते हैं।
वेदांत : माता-पिता या फिर जिसने भी परवरिश करी हो।
शाहिदा : लेकिन अधिकांश लोग तो गलत संगती के कारण ही बिगड़ते हैं।
वेदांत : जिसने आपको बचपन से पाला है, आपको उससे अधिक किसकी संगती प्राप्त होती है? मनुष्य के संस्कार विशेष तौर पर केवल 10 से 15 वर्ष की उम्र तक ही निर्माण हो जाते हैं। इस उम्र तक हर किसी को सबसे अधिक माता-पिता की संगती ही प्राप्त होती है। 10 से 15 वर्ष के बाद मनुष्य के संस्कार बनना न के बराबर हो जाते हैं। क्योंकि अगर इस उम्र के बाद किसी को कुछ सिखाया या समझाया जाता है, तो हो सकता है कि वो बात को समझकर स्वीकार भी कर-ले, पर उसका पालन करना बहुत ही कठिन हो जाता है। अगर कोई व्यक्ति बिगड़ा हुआ है, तो मेरे अनुसार निश्चित रूप से उसकी परवरिश करने वाले व्यक्ति का इसमें 98% योगदान होता है, और केवल 2% ही उसके स्वयं का। लेकिन लोग अपनी असफलता और नालायकी को छुपाने के लिए अपने बच्चों के बिगड़ने का आरोप, अन्य लोगों की संगती पर डाल देते हैं। जैसे आपने वृद्ध आश्रम के विषय में अवश्य ही सुना होगा। मलीन लोग अपने बूढ़े माता-पिता को वृद्ध आश्रम में छोड़कर आ जाते हैं, आपको इसमें किसका दोष दिखाई देता है?
शाहिदा : अवश्य ही उन लोगों का दोष दिखाई देता है जो अपने माता-पिता को वृद्ध आश्रम में छोड़ आते हैं।
वेदांत : माता पिता चाहे जैसे भी हों उनका त्याग कभी नहीं करना चाहिए, जीवनभर उनकी सेवा अवश्य करनी चाहिए। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जिन लोगों को उनके बच्चों ने वृद्ध आश्रम में छोड़ दिया, उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश कितनी बुरी करी होगी? जो लोग अपने पालन करने वाले के साथ इतना बुरा व्यवहार कर सकते हैं, वो अपनी पत्नी और बच्चों तथा बाकी समाज के साथ कितना अधिक बुरा व्यवहार कर सकते हैं? उनके बुरे बनने में सबसे बड़ा योगदान उनकी परवरिश करने वालों का ही है। ऐसे में उनके माता-पिता को तो चाहिए कि वो स्वयं को पीड़ित दिखाने के स्थान पर, स्वयं को कोसें। हर माँ-बाप को चाहिए कि भले ही बचपन में बलपूर्वक अपनी संतनों को विद्यालय न भेजें, लेकिन कम से कम किसी वैष्णव विद्वान् द्वारा उन्हें भगवद गीता का ज्ञान अवश्य सिखाएं।
शाहिदा : पर आपको ये तो मानना ही पड़ेगा कि पशु और पक्षियों के मांस में शाकाहारी खाने से अधिक प्रोटीन होता है।
वेदांत : ये बात भी बिलकुल अनुचित है। मांसाहारी लोग ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि या तो उनके पास उचित ज्ञान नहीं होता, या फिर वो मांस खाना नहीं छोड़ना चाहते, इसलिए बहाने ढूंढ़ते हैं। जबकि कृष्ण ने शाकाहारी भोजन में भी मनुष्य के लिए पर्याप्त प्रोटीन दिया हुआ है। जैसे ‘सोयाबीन’ और ‘मूंग की दाल’ में ‘मुर्गे’ और ‘मछली’ से भी अधिक प्रोटीन पाया जाता है।
शाहिदा : अगर मांस खाना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि इससे हम अपने स्वार्थ और स्वाद के कारण जीवों की हत्या कर देते हैं, तो क्या सफ़ेद अंडा खाना उचित है? क्योंकि सफ़ेद अंडे में कोई जीवन नहीं होता, वो तो मुर्गी से इंजैक्शन के द्वारा निकलवाया जाता है।
वेदांत : अंडा खाना तो मांस खाने से भी बुरा है। क्या आपने कभी उन फ़ार्म्स में जाकर मुर्गीयों की दशा देखी है, जहाँ उनसे अंडा निकलवाया जाता है? उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाता है, और यही वास्तविक कारण है अंडा न खाने के लिए।
शाहिदा : क्या आप ‘वीगन’ लोगों के जैसे ‘गाये और भैंस’ का दूध पीने का भी विरोध करते हो?
वेदांत : मैं गाये और भैंस का दूध पीने का पूर्णतः विरोध तो नहीं करता। क्योंकि गाये और भैंस को भगवान ने हमें दूध प्रदान करने के लिए ही बनाया है। इसलिए बछड़ों को दूध पिलाने के बावजूद उनके पास बहुत अधिक मात्रा में दूध बच जाता है। बछड़े को दूध पिलाने के बाद जो दूध बच जाता है, हम उसका सेवन सकते हैं। लेकिन हमें दूध केवल ऐसी गौशाला से ही लेना चाहिए जहाँ गायें-भैंसों की अच्छे से सेवा करी जाती हो। फार्म्स से आया हुआ पैकेट वाले दूध का सेवन नहीं करना चाहिए। क्योंकि फार्म्स में गाये-भैंसो के साथ भी बहुत बुरा व्यवहार किया जाता है। उनको निरंतर इंजैक्शन लगा-लगाकर जीवनभर गर्भवती बनाके रखा जाता है, जो कि बहुत दर्दनाक है। साथ ही उनके बछड़ों को उनसे अलग कर दिया जाता है, ताकि उनके पास दूध की मात्रा अधिक हो पाए।
शाहिदा : क्या पैकेट में आने वाला कम्पनी का दूध भी गाये-भैंस का ही होता है? मूझे तो लगता था कि वो दूध बनाने की प्रक्रिया अलग होती है।
वेदांत : वो दूध भी अधिकांश गाये-भैंस का ही होता है, बस उन्हें अलग-अलग प्रक्रिया द्वारा टोंड, फुल क्रीम आदि बनाया जाता है।
शाहिदा : आपको सुनने पर मुझे हमेशा एक अद्भुत दृष्टिकोण प्राप्त हो रहा है। तो क्या आपके अनुसार हलाल-हराम या वैध-अवैध तथा परंपराओं का पालन नहीं करना चाहिए?
वेदांत : अगर पुरानी व्यर्थ की परंपराओं को छोड़ा नहीं गया तो संभव है कि उन परंपराओं के कारण आप स्वयं ही परेशानी में पड़ जाओगे। और जो परंपरा समाज में समस्या उत्पन्न कर रही हो और शोषण का कारण बन रही हो, उनसे ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं? क्या वो सर्वशक्तिमान ईश्वर नासमझ और क्रूर है? अगर नहीं, तो ये कैसे माना जा सकता है कि पूरे विश्व को बनाने वाला ईश्वर ऐसी परंपरा बना सकता है जो पूर्णतः तर्कहीन हैं, या फिर जिससे हम, यानी उन्हीं के अंशों को कष्ट पहुँच रहा हो? परंपरा उसे कहते हैं जो हमारे पूर्वजों ने धर्म का पालन करने के लिए कुछ विशेष नियम बनाये हैं, उन सभी नियमों के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। वैसे तो परंपरा का पालन करना चाहिए पर भगवान ने सही और गलत का निर्णय करने की समझ केवल मनुष्य को ही दी है। जब मनुष्य ही ऐसे कार्य करेंगे, तो फिर इस मनुष्य के शरीर का क्या लाभ? इसलिए हमें स्वयं से जांचकर ही कि उस परंपरा का पालन करना इस वर्तमान की परिस्थिति में ठीक है या गलत है, तभी पालन करने का निर्णय लेना चाहिए। ये आवश्यक नहीं है कि जो आपके पूर्वजों ने कहा वो बिल्कुल ठीक ही हो। तथा जो परंपरा गलत है उसे छोड़ने में समस्या भी क्या ही-हो सकती है? इस्लाम और इस जैसे मज़हबो के अधिकांश नियम आज एक सभ्य और समझदार समाज के लिए बिल्कुल भी मानने योग्य नहीं है। लेकिन ये बात मैं किसी पक्के अन्धविश्वासी मुसलमान से कहूंगा तो वो कहेंगे कि अल्लाह ने मेरी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। जबकि वास्तव में तो वो लोग स्वयं ही अज्ञानी है। जब उनके पास कोई तर्कशील उत्तर नहीं होता तब वो लोग ऐसी ही हवाई बातें करने लगते हैं, और मूर्खता तथा असत्य को ही सत्य मानने के लिए मजबूर हो जाते हो। पर ऐसा करके वो अपने मनुष्य जीवन को पूर्ण रूप से व्यर्थ कर देंगे।