(तेरहवाँ विषय)
स्वर्ग क्या है?
शाहिदा : मैंने सुना है कि भगवद गीता में भी स्वर्ग और स्वर्ग के भोगों के विषय में बताया गया है।
वेदांत : मैं आपके इस संशय को अभी दूर कर देता हूँ। भगवान श्री कृष्ण ने गीता के अध्याय 2 के श्लोक 2 और 3 में अर्जुन से पूछा कि तुझमें ये मोह क्यों आया है? और उसके बाद कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो अर्जुन बोल रहे हैं उससे न स्वर्ग मिलेगा और न कीर्ति मिलेगी। यानी भगवान साफ शब्दों में बता रहे हैं कि जो बातें अर्जुन सोच रहे हैं वो ठीक नहीं है। क्योंकि एक तो स्वर्ग केवल वही व्यक्ति जाता है जो अच्छे कर्म करता है, और संत जनों में कीर्ति भी उसे ही प्राप्त होता है जिसमें कोई वास्तविक विशेषता होती है। साथ ही भगवान कृष्ण ने केवल अर्जुन का परीक्षण करने के लिए स्वर्ग की बात कही थी। क्योंकि जो व्यक्ति स्वर्ग की लालच में फँस गया, उसको धर्म या अध्यात्म का ज्ञान देना व्यर्थ है। पर बाद वाले श्लोकों में जैसे अध्याय 2 के श्लोक 42, 43 और 44 में भगवान ने स्वर्ग को महान समझने वाले लोगों को मूर्ख सिद्ध किया है। भगवद गीता एक ज्ञान की पुस्तक है और इसमें भगवान ने विश्व के हर विषय को ही प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से बताया है। पर इसका अर्थ ये नहीं है कि भगवान अर्जुन को गीता 2.3 से 2.4 में स्वर्ग का लालच दे रहे थे। बल्कि भगवान तो एक प्रकार से अर्जुन के ज्ञान और वैराग्य की परीक्षा ले रहे थे। साथ ही भगवान श्री कृष्ण ने स्वर्ग और कीर्ति की बात करके स्पष्ट बता दिया था कि अर्जुन के लिए युद्ध करना ही उचित कार्य है। कृप्या इस विषय को ठीक से समझिये। अध्यात्म उपनिषद, मंत्र 2 में कहा गया है कि “अपने को ही बुद्धि और उसकी वृत्ति का साक्षी मानकर खुद को प्रत्यगात्मा समझो, वो मैं ही हूँ। इस ‘सोऽहम्’ वृत्ति से अपने अतिरिक्त सारे पदार्थों से आत्म बुद्धि का परित्याग कर दें।" जिसका तात्पर्य है कि जो लोग अपने आप को बुद्धि मानते हैं, वास्तव में तो वो भी अज्ञानी है। वैज्ञानिक अब तक केवल यही निष्कर्ष निकाल पाए हैं कि हम सबसे अधिक ‘बुद्धि' ही हैं। लेकिन बुद्धि हमारे शरीर का गुण है, हम तो आत्मा हैं। भौतिक जगत में फँसा हुआ व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार अपना परिचय केवल शरीर से ही पाता है, और इन्द्रीयतृप्ती के लिए निरंतर श्रम करता है। अंत में फिर उस व्यक्ति का अशांति के कारण पतन भी हो जाता है। काम वासना से भरे लोगों को स्वर्ग का लालच देकर लगभग हर मज़हब में मूर्ख बनाया जाता है। जैसे अक्सर मौलवी लोग अंत और क़यामत की बात करके महिलाओं को गुमराह करने के लिए कहते हैं, कि जो महिला पृथ्वी पर 3 सौतनों के साथ शांति से रहेगी उसे स्वर्ग में विशेष पद प्राप्त होगा। लेकिन मेरे अनुसार ये तर्क नहीं कुतर्क है। कट्टरवादी भोग-विलासी लोग स्वर्ग-नरक और अंत का तर्क देकर नासमझों और अज्ञानियों का मुँह तथा बुद्धि बन्द करने का प्रयास करते हैं। फिर चाहे वो हिन्दू हो, मुस्लिम हो, यहूदी हो, ईसाई हो या कोई भी मज़हब का ही क्यों न हो। स्वर्ग को सबसे उत्तम स्थान मानने वाले लोगों को ये भी जानना चाहिए कि स्वर्ग हमेशा के लिए नहीं हो सकता है। स्वर्ग केवल एक सीमित समय के लिए ही होता है, कृष्ण ने इसपर भगवद गीता के अध्याय 9 के श्लोक 21 में कहा है कि “लोग विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य समाप्त होने पर वापसी मृत्युलोक, यानि पृथ्वी पर लौट आते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन का रूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म यानि फल की इच्छा के लिए किये गए कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना करने वाले लोग बार - बार निरंतर शरीर बदलते रहने वाली स्थिति, को प्राप्त होते हैं, पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य समाप्त होने पर मृत्युलोक में लौट आते हैं।" ऐसा इसलिए क्योंकि स्वर्ग को किसी भी तर्क से हमेशा-हमेशा के लिए सिद्ध नहीं किया जा सकता है। स्वर्ग को हमेशा के लिए सिद्ध करने के लिए आपको ईश्वर को गलत विचारों वाला और नासमझ तथा क्रूर साबित करना होगा।
शाहिदा : ऐसा क्यों?
वेदांत : इस्लाम मज़हब में जन्नत और हूरों यानी जन्नत की सुन्दर स्त्रियों का बहुत अधिक प्रचार किया जाता है। मैं आपसे ये पूछना चाहता हूँ कि क्या आपको सच में लगता है स्वर्ग में पुरुषों को अल्लाह उनकी इबादत या पूजा करने के फल में हमेशा के लिए पत्नी के रूप में 72 हूरें देंगे?
शाहिदा : मान्यता तो यही है।
वेदांत : तो इसका अर्थ ये नहीं हुआ कि हमारे समाज का एक कामुक और तुच्छ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि ईश्वर भी महिलाओं को केवल खिलवाड़ करने की और आंनद देने की वस्तु समझते हैं? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि पुरुष केवल एक स्त्री के साथ निष्ठावान रहकर प्रसन्न नहीं रह सकते, जो उन्होंने 72 का लालच दिया गया है? ईश्वर को महिलाओं से इतनी अधिक शत्रुता क्यों होगी? हमेशा के लिए 72 हूरों की बात को किसी भी तर्क से सही सिद्ध नहीं किया जा सकता है। क्या कोई पुरुष ये सहन कर पायेगा कि उसे एक पत्नी से शादी करके उस पत्नी को 71 पुरुषों के साथ साझा करना पड़े? मौलाना लोग तो केवल अपने को ही विशेष समझते हैं। उनके अनुसार जो पुरुष जन्नत में 72 हूरों की इच्छा रखता है, वो बहुत अच्छा है। लेकिन अगर कोई स्त्री अधिक पुरषों की इच्छा रखेगी तो वो चरित्रहीन होगी। क्योंकि उनके अनुसार ईश्वर ने पुरुषों की प्रकृति में ही अधिक स्त्रियों की इच्छा रखी है। जबकि ये बात अपने आप में ही दो कौड़ी की है। और अगर इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कोई स्त्री ये बोले कि वो एक से अधिक पुरुषों के साथ पति का संबंद रखना चाहती है, तो ये मौलाना लोग उसे चरित्रहीन कहने लगेंगे। यानी क्या करने से महिलाएं चरित्रवान होती हैं और क्या करने से चरित्रहीन, इस बात का निर्णय करने का अधिकार भी काम वासना से भरे नासमझ मौलानाओं ने स्वयं को दे रखा है। और जन्नत की हूरों ने ऐसा कौनसा अपराध किया था जो उन्हें दण्ड के रूप में 71 महिलाओं के साथ एक पुरुष को साझा करने के लिए बांध दिया जाता है? वो लड़कियां तो एक प्रकार से ऐसी बंधी बन जाएंगी जो कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती। नासमझ लोग हूरों के इस विषय को सही सिद्ध करने के लिए ये तो कह दिया करते हैं कि जो महिलाएं पृथ्वी पर पुरुषों के खिलवाड़ का कारण बनेगी, उन्हें स्वर्ग में भोग-ऐश्वर्य मिलेंगे। लेकिन जन्नत की 72 हूरें महिला नहीं है क्या? ईश्वर ने उन महिलाओं के साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों किया है? उन हूरों को अकारण एक वैश्या के जैसा बनाया ही क्यों गया है? उनकी भावनाओं के साथ खेलने में ईश्वर को क्या आनंद आ रहा है? क्या कुछ तर्क है इसके पीछे?
शाहिदा : हाँ! हूरें भी तो हमारे जैसे महिलाएं ही हैं, फिर उनके साथ अन्याय क्यों? लेकिन हिन्दू धर्म में भी तो स्वर्ग की संकल्पना है।
वेदांत : हाँ! सनातन धर्म में भी स्वर्ग और अप्सरा यानी स्वर्ग की स्त्रियों की संकल्पना है। पर सनातन धर्म में स्वर्ग हमेशा के लिए नहीं है, जैसा कि भगवान कृष्ण ने भगवद गीता अध्याय 9 के श्लोक 21 में बताया है। स्वर्ग में हर व्यक्ति मात्र कुछ ही वर्षों के लिए जाता है चाहे वो अप्सरा हो, या बाकी के लोग हो। सनातन धर्म में अप्सराओं को किसी के साथ विवाह के बंधन में बांधा भी नहीं जाता है, वो अप्सराएं स्वयं की इच्छा से ही वैश्या के जैसे होती हैं। पृथ्वी पर जिन महिलाओं के विचार अप्सराओं के जैसे काम वासना से भरे हुए होते हैं, लेकिन उनके कर्म बुरे यानी अपराध वाले नहीं होते हैं। तो उन महिलाओं को उनकी इच्छानुसार ही मृत्यु के बाद अप्सराओं के शरीर में जन्म मिलता है। जिससे वो अप्सरायें अनेकों पुरुषों के साथ सम्बन्ध रखती हैं, और इसके विपरीत पुरुषों की भी कुछ ऐसी ही व्यवस्था होती है। सनातन धर्म में स्वर्ग पूर्ण रूप से पुनर्जन्म पर टिका हुआ है, इसलिए ये उचित भी लगता है। क्योंकि स्वर्ग को सत्य मानने के लिए हमें ये तो मानना ही पड़ेगा कि स्वर्ग में प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के कारण ही जाते हैं, और उन्हें अपने कर्मों से ही मात्र कुछ समय के लिए स्वर्ग का झूठा भौतिक सुख मिलता है, बाद में पुण्य समाप्त होने पर वो दुबारा से मृत्युलोक में लौट आएंगे। या फिर ये मानना पड़ेगा कि ईश्वर कोई समझदार व्यक्ति नहीं बल्कि खलनायक के जैसे हैं।
शाहिदा : अगर स्वर्ग इतना विशेष नहीं है, तो फिर स्वर्ग को इतना महत्व क्यों दिया गया है सभी मज़हबों में?
वेदांत : स्वर्ग की बात या तो बिगड़ैल लोगों में थोड़ा सा सुधार करने के लिए करी जाती है, ताकि बिगड़ैल लोग उससे आकर्षित होकर कुछ हद तक सुधर जाएं। या फिर अज्ञानी लोगों को भ्रमित करके उनसे अपने अनुसार कार्य करवाने के लिए स्वर्ग की बात करी जाती है। पर भगवद गीता एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें भगवान कृष्ण ने अध्याय 2 के श्लोक 42, 43 और 44 में स्वर्ग को एक बहुत ही निचले स्तर का बताकर अध्यात्म की श्रेणी से ही हटा दिया है। इसमें कृष्ण ने कहा है कि - “जो लोग भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल को सराहने वाले वेदवाक्यों को ही पसंद करते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही सबसे अधिक प्राप्त करने योग्य स्थान है और जो स्वर्ग से बढ़कर कुछ नहीं है - ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त बातें किया करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में बहुत आसक्त हैं, उन लोगों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती।" यही कारण है कि क़ुरान को जानने वाले मुसलमान मौलवी और बाइबिल को जानने वाले ईसाई पादरी तो स्वर्ग का प्रचार करते हुए झिझकते नहीं है, लेकिन गीता को जानने वाले सनातनी पंडित कभी स्वर्ग का प्रचार नहीं करेंगे। स्वर्ग चाहे सनातन धर्म का हो, इस्लाम मज़हब का हो या फिर ईसाई मज़हब का हो, वहाँ के भोग लगभग एकसे ही-हैं। कृष्ण ने बताया है कि स्वर्ग मात्र कुछ समय के लिए ही है, वहाँ जाकर भोग करके लोग वापसी लौट आते हैं। चाहे वो देवता हो, स्वर्ग में रहने वाले सामान्य लोग हो या फिर स्वर्ग की अप्सराएं ही क्यों न हो, उन सभी को किसी न किसी ग्रह पर पुनः जन्म लेना ही पड़ेगा। क्योंकि स्पष्ट है कि ऐसे भोगों से भरे भौतिक स्थान को हमेशा के लिए मानना मूर्खता है। स्वर्ग वास्तव में होता है या नहीं होता है, इस विषय पर अगर मैं आपसे कहूँ कि स्वर्ग केवल कल्पनामात्र है तो एक प्रकार से मैं आपको अद्वैतवादी या मायावादी लोगों के जैसे ही मूर्ख बना दूंगा। क्योंकि जब इस विश्व में इतने सारे ग्रह हैं तो स्वर्ग और नरक को पूर्ण रूप से नकार देना भी समझदारी नहीं होगी। लेकिन जो लोग भोगों की इच्छा से स्वर्ग जाने के सपने देख रहे हैं, वो अध्यात्म और भगवदगीता को कभी नहीं समझ पाएंगे। मुर्ख लोग सोचते हैं कि स्वर्ग में भोग करेंगे, वहाँ सुंदर अप्सराओं या हूरों से विवाह होगा तो बहुत आनंद आएगा। पर अगर आप अध्यात्म की दृष्टि से समझने का प्रयास करोगे तो समझ पाओगे कि उन्हें अप्सरा और हूरें मिल भी जाएं, तब भी वो लोग बार-बार एक अप्सरा को छोड़कर दूसरी अप्सरा और दूसरी को छोड़कर तीसरी अप्सरा के पीछे वैसे ही दौड़ते रहेंगे जैसे कबूतर सुबह से शाम तक कबूतरियों के पीछे दौड़ते रहते हैं। क्या लोग दौड़ने के लिए स्वर्ग जाना चाहते हैं? और क्योंकि स्वर्ग हमेशा के लिए नहीं है तो कुछ वर्ष भोग करने के पश्चात वापसी भी लौटकर आना ही पड़ेगा। ग्रंथों में जो बताया गया है उसके अनुसार उन कुछ वर्षों को अगर आप भौतिक दृष्टि से देखोगे तो दस हज़ार, बीस हज़ार या पचास हज़ार वर्ष समझोगे। लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से हर भौतिक विषय का अंतर बहुत कम हो जाता है। क्योंकि केवल भगवद गीता को समझने वाला व्यक्ति ही भौतिक जगत को इसके वास्तविक रूप में समझ सकता है। अध्यात्म की दृष्टि से स्वर्ग जाकर लौटने का अंतर केवल ‘एक क्षण' यानी एक पल के समान है।
शाहिदा : कैसे?
वेदांत : आपकी उम्र कितनी है?
शाहिदा : 29 वर्ष।
वेदांत : पीछे मुड़के देखिए उस समय को जब आप पहली बार विद्यालय या कॉलेज गए थे। उस समय और आज के बीच में आपको कितना अंतर दिख रहा है?
शाहिदा : वैसे तो कोई अंतर नहीं दिख रहा, क्योंकि कुछ भी ठीक से स्मरण नहीं है।
वेदांत : बिल्कुल ठीक कहा आपने। बहुत ध्यान से विचार करने पर भी आपको अंतर नहीं दिखेगा, क्योंकि बीता कुछ भी पूर्ण रूप से स्मरण रह ही नहीं पाता है। यानी उस समय और आज में एक क्षण से अधिक अंतर नहीं है। इसी प्रकार आपके इस शरीर का अंतिम दिन भी आ जायेगा और तब भी आपको अपने जन्म लेने और मरने के मध्य में केवल एक पल का ही अंतर दिखाई देगा। ये ‘समय' मात्र योगमाया है, ये माया का जाल है। मुर्ख लोग इस बात को कभी समझ ही नहीं पाते कि उनके जन्म लेने और मरने के बीच में मात्र एक क्षण का ही अंतर है। स्मरण करो वो समय जब आप किसी समारोह में जाने के लिए बहुत उत्सुक थे, और उस समय का भी स्मरण करो जब आप उस समारोह में जाकर अपने घर वापसी लौट भी गए थे। गंभीरता से समझने का प्रयास कीजिये मेरी बात को। क्या उन दोनों ही समय में ‘एक क्षण' से अधिक अंतर था? जीवन की इस सच्चाई को जानकर मिलने वाले झटके को ही तो दिव्य साक्षात्कार का पहला चरण कहते हैं। ये सत्य है कि जल्द ही आप और मैं, हम सभी शरीर इस संसार से लुप्त हो जाएंगे। ये सच थोड़ा कड़वा तो है, लेकिन इसे कोई नकार नहीं सकता। एक समय होता है जब आप किसी स्थान पर घूमने जाने की योजना बना रहे होते हो, और जल्द ही एक समय ऐसा भी आ जाता है जब आप उस स्थान पर घुमके वापसी लौट जाते हो। आपसे जब उसके विषय में पूछा जाए तो आप ये तो कहते हो कि वहाँ मुझे बहुत आनंद आया, लेकिन अगर ऐसा है तो फिर वो आनंद कहा खो गया? क्योंकि आनंद तो हमारा यानी आत्मा का गुण है। जब आनंद आत्मा का गुण है तो फिर वो किसी भी समय शुरू और समाप्त कैसे हो सकता है? आनंद हमेशा वर्तमान में होता है। पर शोक कि हम अभी समय वाले जगत में हैं और समय हमेशा ही बहुत तेज गति के साथ बीत-ता रहता है। हम जब कोई आनंद करने की योजना बना रहे होते हैं तब वो ‘भविष्य' होता है, इसलिए उस समय में कोई आनंद नहीं मिल पाता। जब हम उस योजना को पूरा कर रहे होते हैं तब वो ‘वर्तमान' होता है पर समय इतनी तेज़ गति से बीत जाता है कि कई दिन भी एक क्षण के जैसे बन जाते हैं और वर्तमान कब ‘भूत' यानी बीता हुआ समय बन जाता है इसका पता ही नहीं चलता, इसलिए उसमें भी ठीक से सुख नहीं मिल पाता है। इससे मेरा तात्पर्य ये नहीं है कि आनंद करने की योजना ही नहीं बनानी चाहिए। क्योंकि आनंद में रहना ही तो हमारा वास्तविक स्वभाव है। बल्कि हमको हर एक क्षण को ही उत्सुक और आनंदमय बनाना चाहिए, लेकिन किसी वस्तु, स्थान और व्यक्ति को स्वयं की आवश्यकता मानना गलत है। ये सोचना छोड़ दो कि केवल किसी वस्तु को प्राप्त करके या किसी स्थान पर जाकर या फिर कुछ कार्य करके ही आनंद हो सकता है, क्योंकि ऐसा कभी नहीं होगा। भौतिक सुख पाने की इच्छा कर-करके ही आपने और मैंने इस पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों वर्ष गवा दिए हैं। अभी भी समय है इस दुखों से भरे संसार से बाहर निकलकर परमानंद यानी सबसे उच्च स्तर के आनंद स्वरूप ‘गोलोक’ वापसी लौटने का। उस परम ईश्वर कृष्ण से एक यानी कृष्णमय हो जाने का।