(चौदहवाँ विषय)
पृथ्वी पर जन्म
शाहिदा : भगवान कृष्ण ने हमें इस संसार में जन्म दिया ही क्यों? और अगर जन्म दिया भी तो फिर मृत्यु क्यों बनाई?
वेदांत : पृथ्वी पर हमारे जन्म लेने के विषय में कई अलग-अलग मज़हबों तथा संप्रदायों में अलग-अलग कारण बताये गए हैं। पर बाकी लगभग सभी मज़हबों में बताये गए कारण उचित नहीं लगते। सनातन धर्म के अनुसार करोड़ो ग्रह और ब्रह्मांड होते हैं। विश्व के सभी ग्रहों और ब्रम्हांड़ो से ऊपर और गुणों में सबसे उत्तम ‘गोलोक वृंदावन धाम’ है, जहां भगवान कृष्ण अपने बहुत ही सुंदर साकार रूप में रहते हैं। और ऐसे ही भगवान कृष्ण के गर्भोदक्षायि विष्णुजी विस्तार का ‘वैकुंठ धाम’ है। हम सभी बहुत पहले, शायद लाखों-करोड़ों वर्ष पहले कृष्ण के परम धामों में ही रहा करते थे। वहाँ के निवासियों में न काम वासना है, न क्रोध है और न ही कोई दूसरे विकार हैं। वहाँ के लोग केवल भगवान की भक्ति करते हैं और उन्हीं के दर्शन करके परमानंद यानी सबसे बड़े स्तर के आनंद को प्राप्त करते हैं। वहाँ हर समय समारोह होता रहता है, भगवान के नाम का भजन, कीर्तन और नृत्य चलता रहता है। लेकिन उधर भी लोगों के मन में जब स्वतंत्र बनने की इच्छा, लोभ, क्रोध, जलन, काम वासना जैसे विकार आ जाते हैं तो वो नीचे की ओर देखते हैं। उन ग्रहों को देखते हैं जिनमें उनके अनुसार आनंद होता है और उसमें जानें का प्रयास करते हैं। हमारे विकारों की इच्छा के कारण ही भगवान ने गोलोक, वैकुंठ के इलावा अन्य ग्रह अथवा ब्रम्हांड बनाये हैं। क्योंकि वो हमेशा अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करते हैं। एक बार श्रील प्रभुपाद जी से किसी व्यक्ति ने पूछा कि ‘गुरुजी कृष्ण ने ये भौतिक जगत बनाया ही क्यों है?' इसपर श्रील प्रभुपाद जी ने उत्तर दिया ‘दुष्ट ये जगत तुमने बनाया है'। ये सुनकर वो व्यक्ति सोच में पड़ गया और कहने लगा ‘पर मैंने तो कुछ नहीं बनाया।' तो उत्तर में श्रील प्रभुपाद जी ने कहा ‘क्योंकि तुम्हे चाहिए था ये जगत, इसलिए ही कृष्ण ने ये जगत बनाया है।' यानी इच्छाओं और विकारों के कारण से जब आत्मा दूषित हो जाती है तो उसे जीवात्मा कहते हैं। हालांकि आत्मा कभी पूर्णतः दूषित नहीं हो सकती है, ये केवल कुछ समय के लिए विकारो के कारण होता है। भगवान और उनके परम भक्त - आत्मा सदा से ही वैकुण्ठ या गोलोक धाम में रहते हैं।
शाहिदा : इस विश्व को कृष्ण ने कब बनाया था?
वेदांत : इस विश्व को भगवान ने कभी नहीं बनाया, ये विश्व हमेशा से है और हमेशा रहेगा। जैसा कि भगवान कृष्ण ने भगवद गीता के अध्याय ने कहा है कि “न तो ऐसा कभी हुआ कि मैं नहीं था, न तुम थे, और न ही ये राजाओं के समूह थे। और न ही ऐसा कभी होगा कि हम सब भविष्य में नहीं रहेंगे।” इस श्लोक से स्पष्ट पता चलता है कि आत्मा का कभी जन्म नहीं हुआ। परमात्मा श्री कृष्ण और हम यानी आत्मा, सब ही सनातन है। लेकिन अक्सर अज्ञानी आस्तिक लोग नास्तिक लोगों से बहस करते हुए ये कहते हैं, कि जब कोई वस्तु अपने आप नहीं बन सकती तो ये विश्व अपने आप कैसे बन सकता है? इसपर अज्ञानी अस्तिकों को लगता है कि वो बहस में जीत जायेंगे, लेकिन ऐसा नहीं होता। नास्तिक लोग इसके उत्तर में ये कह सकते हैं कि जब विश्व में कुछ भी अपने आप नहीं बन सकता तो विश्व को बनाने वाला ईश्वर भी अपने आप नहीं बन सकता। और अगर ईश्वर अपने आप बन सकता है तो ये विश्व भी अपने आप बन सकता है। इसलिए इस विषय में नास्तिकों से हमें स्पष्ट रूप से ये कहना चाहिए कि ये विश्व कभी बना ही नहीं है। इसे किसी ने नहीं बनाया, ये हमेशा से था और हमेशा रहेगा। हाँ इस विश्व में कई सारे ब्रह्माण्ड और गृह बनते और नष्ट होते रहते हैं।
शाहिदा : जब ये विश्व हमेशा से था तो भगवान में और हमारे में क्या अंतर है?
वेदांत : भगवान में और हमारे में ये अंतर है कि वो स्वामी हैं और हम उनके दास हैं। वो पूर्ण हैं और हम उनके अंश हैं, इसलिए अंश को स्वयं की संतुष्टि के लिए भी हमेशा पूर्ण को संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि जैसे ताली एक हाथ से नहीं बजती वैसे ही भक्ति भी एक ओर से नहीं होती। जिस प्रकार हम भगवान का भजन करते हैं, उसी प्रकार भगवान भी अपने भक्त का भजन करते हैं। तो जैसे ही आत्मा में विकार आता है तब वो अपनी इच्छानुसार ही गोलोक से दूसरे ग्रह पर जाने का प्रयास करती है। क्योंकि गोलोक में तो हम केवल भक्ति करते हैं और भक्ति में ही परमानंद भी है। पर अपनी इच्छा की पूर्ति और भोग करने के लिए दूषित हो चुकी आत्मा को कुछ विकार पूरे करने होते हैं। भगवान उसकी इच्छा को पूरा करते हैं और उस दूषित आत्मा को उसी ग्रह पर भेज देते हैं जहां वो जाना चाहती है। लेकिन अन्य ग्रहों पर जाके भोग करने का निर्णय हमारे लिए इतना भयंकर सिद्ध होता है कि हम लाखों-करोड़ो वर्षों तक बार-बार जन्म लेने तथा मरने के चक्र में बंध कर रह जाते हैं। क्योंकि जैसे अगर कोई व्यक्ति स्वर्ग जाता है, तो स्वर्ग में इतने अधिक भोग-ऐश्वर्य हैं कि उसके लिए भक्ति करना असंभव हो जायेगा। वहाँ बहुत सारी सुंदर अप्सराएं होती है जिनके साथ पुरुष लोग जितना चाहे उतना भोग कर सकते हैं, इस प्रक्रिया में किसी की कोई सीमा भी नहीं रहती। ऐसा नहीं है कि केवल पुरुषों के लिए ही भोग करने की व्यवस्था है, ठीक इसी प्रकार की व्यवस्था महिलाओं के लिए भी है। स्वर्ग में आपके पास बहुत सारी खाने-पीने की वस्तुएं भी होंगी जो कभी समाप्त नहीं होगी, और न ही आपका पेट भरेगा। वहाँ न बचपन है और न बुढ़ापा, केवल जवानी है। स्वर्ग का सुख जानकर एक नासमझ मनुष्य को स्वर्ग ही सबसे उत्तम स्थान लगेगा। लेकिन एक कृष्ण भक्त की दृष्टि से स्वर्ग से अधिक उत्तम तो पृथ्वी ही है क्योंकि यहाँ पर हर कार्य की एक सीमा है, साथ ही दुख भी है। इसलिए हम भगवान की भक्ति भी स्वर्ग की तुलना में अधिक कर सकते हैं पृथ्वी पर।
शाहिदा : फिर आत्मा पृथ्वी पर कैसे आती है?
वेदांत : जीवात्मा में जब जलन, दूसरों को नीचा दिखाने की इच्छा, अपराध करने की इच्छा ये सब विकार भर जाते हैं और उसकी ये सभी इच्छाएं पूरी नहीं होती, तो वो पृथ्वी पर आने का प्रयास करती है। और यही प्रयास उसकी सबसे बड़ी भूल सिद्ध होता है। क्योंकि पृथ्वी पर जन्म लेते ही जीवात्मा पिछला सबकुछ भूल जाती है, यानी पूर्ण रूप से अज्ञानी हो जाती है। इसी प्रकार हम पृथ्वी पर बुरे कर्म करके या ममता के कारण कर्मबंधनों में बंध जाते है, फिर बार-बार जन्म लेना और मरना शुरू कर देते हैं।
शाहिदा : ये किस प्रकार से होता है?
वेदांत : इस विषय को सरल भाषा में समझने के लिए आपको ‘जय और विजय’ की कथा जाननी चाहिए। जय - विजय एक समय पर भगवान के शुद्ध भक्त हुआ करते थे और अपनी इच्छा से ही गर्भोदक्षायि विष्णु जी के वैकुंठ में द्वारपाल का कार्य करते थे। वो आने वाले भक्तों का स्वागत करा-करते थे। एक बार परम भक्त ‘चार कुमार’ वैकुंठ धाम पहुचें। लेकिन बहुत पवित्र धाम वैकुंठ के द्वारपाल बनकर भी जय - विजय के मन में कई विकारों ने जन्म ले लिया था। वो वैकुंठ से पृथ्वी पर जाना चाहते थे और भोगों की इच्छाओं से भरे जा रहे थे। क्योंकि वैकुंठ से और बाकी परम ग्रहों से भी दूसरे ग्रह को देखा जा सकता है। और जिस वस्तु को हम देखते हैं उसी को प्राप्त करने की इच्छा भी हमारे मन में घर करने लगती है। जहां जय और विजय को चार कुमारों का स्वागत करना चाहिए था, उन्होंने उल्टा उनको वैकुंठ के द्वार पर ही रोक लिया। अश्विनी कुमारों को ये देखकर क्रोध आ गया। क्योंकि वो जान गए थे कि जय - विजय में भोगों की इच्छा भर चुकी है इसलिए उन्होंने उन दोनों को उनकी इच्छा-अनुसार तीन जन्मों तक पृथ्वी पर जानें का श्राप दे दिया। ये श्राप सुनकर जय - विजय बहुत घबरा भी गए मगर वो कुछ समय के लिए पृथ्वी पर जन्म भी लेना चाहते थे। तब उन्होंने भगवान विष्णु से इस श्राप का उपाय करने की प्रार्थना करी। भगवान विष्णु जी ने उनसे कहा कि “तुम्हारे अंदर विकार आने से अब तुम्हे श्राप तो भुगतना ही पड़ेगा। लेकिन तुम्हारे तीनों जन्मों में - मैं स्वयं अवतार लेकर तुम्हारा वध करूँगा। मुझसे तुम्हारा वध होने के पश्चात तुम दुबारा शुद्ध होकर मेरे पास वैकुंठ में आ जाओगे।" उसके बाद जय - विजय ने पहला जन्म ‘हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु' के रूप में लिया जिनका वध भगवान ने वराहदेव और नरसिंहदेव के अवतार में किया था। जय - विजय का दूसरा जन्म ‘रावण और कुम्भकर्ण' के रूप में हुआ जिनका वध भगवान ने राम अवतार में किया। उसी प्रकार जय - विजय का तीसरा जन्म 'शिशुपाल और दंतवक्र' के रूप में हुआ जिनका संघार या उद्धार भगवान कृष्ण ने किया था। इस प्रकार से जय और विजय ने अपनी गलती का प्रायश्चित किया और पुनः शुद्ध हो गए। इसलिए हमें भी हमेशा स्वयं में आत्मा के गुणों को दुबारा विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।