(सोलहवाँ विषय)
इच्छा और काम वासना
शाहिदा : आपने कई बार कहा है कि इच्छाओं पर नियंत्रण करना आवश्यक है, तो क्या कोई इच्छा करना पूर्णतः गलत है?
वेदांत : इच्छा करना बुरा नहीं है, लेकिन इच्छाओं को नियंत्रित नहीं किया जाये तो वो काम वासना बन जाती है। काम वासना और इच्छा में बहुत अंतर है। काम की सोच में कभी शांति मिल ही नहीं सकती, इसका तात्पर्य ये हुआ कि काम 'अशांति' का नाम है। और जिसके पास शांति नहीं है उसको वास्तविक सुख भी नहीं मिल सकता है। पर कामी लोगों के लिए इस बात को समझना बहुत ही कठिन है। सरल भाषा में समझाऊं तो जैसे मच्छर हमारे शरीर के जिस भाग पर काटता है वहाँ खुजली होने लगती है। जब हम उस भाग को खुजाते हैं तो खुजली बढ़ती ही चली जाती है, यहाँ तक कि ज़ख्म भी बन जाता है। खुजाने पर हमें थोड़ा आनंद का तो अनुभव होता है पर वास्तव में वो आनंद नहीं होता। वो तो हम अपनी समस्या को दूर करने का प्रयास कर रहे होते हैं। काम भी कुछ ऐसा ही होता है। काम वासना नामक खुजली जब हमारे मन में बीमारी बनकर आती है तो हमें लगता है कि इसको खुजाने से यानी पूरा करने से बहुत आनंद आएगा, पर वास्तव में उससे हमें उल्टा अशांति प्राप्त हो जाती है। काम उस पागलपन का नाम है जो हमें परेशान करने के लिए होता है। इच्छा उसे कहते हैं जिसका हम सरलता से त्याग भी कर सकते हैं, पर काम उसे कहते हैं जिसे छोड़ पाना बहुत कठिन है। जैसे मान लीजिए कि आपको कोई वस्तु पसंद आ गयी और आपको उसे खरीदने की इच्छा हुई। पर आपके पास उसे खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं है, इसलिए आप अपनी इच्छाओं का बहुत सरलता से त्याग करके उसे खरीदने का विचार छोड़ देते हो। पर अगर आपके मन में उस वस्तु को लेकर ‘काम’ उत्पन्न हो गया तो आपके लिए उसको भुला पाना बहुत ही कठिन हो जाएगा। जो वस्तु चाहिए ही चाहिए उसके बिना मैं रह नहीं सकता, या रह नहीं सकती - ऐसी सोच को काम वासना कहते हैं। साथ ही एक से अधिक प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के संबंध बनाने की इच्छा करना और एक ही वस्तु में संतुष्ट न रहना भी काम है। स्पष्ट और सरल शब्दों में कहें तो किसी भी वस्तु या व्यक्ति के लिए बहुत अधिक इच्छा करना या फिर किसी भी वस्तु या व्यक्ति से असंतुष्ट होने को हिंदी में काम, उर्दू में हवस और अंग्रेज़ी में लस्ट कहा जाता है। इसलिए मैं उस शादी को भी उचित नहीं मानता जो स्त्री-पुरुष ने शादी का अर्थ जाने बिना की हो।
शाहिदा : लेकिन अगर एक से अधिक शादी संबंध बनाना अनर्थ है तो फिर भगवान श्री कृष्ण ने 16,000 शादियां क्यों करी थीं?
वेदांत : भगवान कृष्ण ने जब पृथ्वी पर अवतार लिया था तब उन्होंने मुख्य 8 और कुल 16,108 शादियां करी थी। शादियां करना और इच्छा करने में अंतर होता है। आपको भगवान के साथ अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आप उनके स्तर तक कभी नहीं पहुँच सकते। एक बार जब भगवान के विशेष भक्तों में से एक ‘नारदमुनि' ये देखने के लिए कृष्ण के महलों में गए थे कि कृष्ण अपनी किस पत्नी के साथ अधिक रहते हैं, तब उन्होंने देखा कि 16108 अलग - अलग महलों में हर पत्नी के साथ ही कृष्ण उपस्थित थे। क्या कृष्ण के सिवा कोई अन्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है? एकादशी की कथाओं में कृष्ण ने भी स्वयं साफ शब्दों में कहा है कि एक से अधिक विवाह करने की इच्छा करना पाप नहीं बल्कि ‘महापाप' है।
शाहिदा : लेकिन कृष्ण ने इतनी सारी शादियां क्यों करी।
वेदांत : कृष्ण की पहली पत्नी माता ‘रुक्मणि' जी थीं। रुक्मणि का विवाह कृष्ण के शत्रु शिशुपाल से हो रहा था जो एक बुरा मनुष्य था, पर रुक्मणि जी कृष्ण से शादी करना चाहती थीं। तब रुक्मणि ने कृष्ण को प्रेमपत्र लिखकर भेजा और कहा कि अगर तुमने मुझसे शादी नहीं करी तो मैं देहत्याग कर लुंगी। वैसे तो अवतार लेने के बाद से कृष्ण कभी रुक्मणि से मिले नहीं थे, पर फिर भी उन्होंने रुक्मणि के प्रेम प्रस्ताव को स्वीकार करलिया था। ऐसे ही कृष्ण की सभी शादियां कृष्ण की इच्छा से नहीं बल्कि स्त्रियों की इच्छा से हुई थी। जैसे एक राक्षस ‘नरकासुर' की कैद में 16100 महिलाएं फँसी हुई थी, कृष्ण ने उस राक्षस को मार दिया और उन महिलाओं को स्वतंत्र करते हुए कहा कि अब तुम सब अपने - अपने घर लौट जाओ। लेकिन कृष्ण को देखते ही वो वो सभी उनपर फ़िदा हो गईं और उन्होंने भी कृष्ण को शादी के लिए प्रस्ताव दे दिया था। और कहा था कि अगर तुम हमसे शादी नहीं करोगे तो हम देहत्याग कर लेंगी क्योंकि हमारे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। वैसे, उन महिलाओं के पास कहीं और जाने का विकल्प भी नहीं था।
शाहिदा : पर कृष्ण ऐसे ही किसी को भी अपनी पत्नी कैसे बना सकते हैं? क्या आपको कोई इस प्रकार का प्रस्ताव देगा तो आप उसे स्वीकार करोगे?
वेदांत : ठीक से समझें तो भगवान की पत्नी नहीं होती, बल्कि उनके भक्त होते हैं। ‘गर्ग संहिता’ के अनुसार वो सभी महिलाएं जिनको कृष्ण की पत्नी बनने का अवसर मिला वो सभी पिछले कई जन्मों से कृष्ण के साथ ऐसी लीला करने के लिए तपस्या कर रही थीं, तभी उन्हें ये अवसर फल के रूप में मिला था। जब भगवान ने श्री राम के रूप में अवतार लिया था, तब उनको कई महिलाओं ने पूर्ण ह्रदय से विवाह करने का निमंत्रण दिया था, पर राम ने उन्हें ये कहकर अस्वीकार कर दिया था कि मैं एक मर्यादा पुरुषोत्तम पुरुष हूँ, इसलिए मैं किसी भी स्थिति में एक से अधिक विवाह नहीं कर सकता। पर राम ने संकेत में ये कह दिया था कि जब वो अपने पूर्ण कृष्ण रूप में अवतार लेंगे, तब उनकी कोई मर्यादा नहीं होगी। क्योंकि भगवान का राम अवतार एक मर्यादित मनुष्य के रूप में था, ताकि लोग उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानकर उनसे उचित तथा अनुचित का ज्ञान प्राप्त कर सकें। तो उन महिलाओं का राम के प्रेम के विरह में ही देहांत हो गया था। उसके बाद भी कई जन्मों तक उन महिलाओं ने तपस्या करी, तब जाकर वो कृष्ण की पत्नी बन पाई थीं। ऐसे ही यशोदा माता, नंद बाबा, वासुदेव बाबा, देवकी माता और जितने भी लोग कृष्ण लीला में शामिल हैं, उन सभी को किसी न किसी वरदान और इच्छा से ही ये अवसर मिला था। माता यशोदा ने पिछले जन्म में भगवान को पुत्र के रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करी थी, इसलिए उनको भगवान उसी सम्बन्ध में मिले। केवल कृष्ण के वास्तविक भक्त ही कृष्ण को बंधन में बांध सकते हैं, जिनके लिए कृष्ण के सिवा किसी भी व्यक्ति या वस्तु का कोई मूल्य नहीं है।
शाहिदा : ठीक है, अगर कृष्ण परम ईश्वर हैं तब तो एक अलग बात है। लेकिन मैंने सुना है भगवान राम के पिताजी ‘राजा दशरथ’ ने भी तो 3 शादियां करी थी, वो क्यों?
वेदांत : किसी भी व्यक्ति ने क्या किया इससे आपको क्या लेना-देना है? अगर कोई कुए में कूदे तो उसे देखकर कुए में कूदना उचित होगा? दशरथ ने तो राम के जन्म के बाद अपना पूरा खज़ाना खाली कर दिया था दान दे-देकर, तो क्या लोग वो भी करेंगे? किसी को देखना ही है तो आप हमारे वास्तविक प्रेरणास्रोत भगवान ‘राम' को क्यों नहीं देख रहे जिन्होंने एक पत्नी का व्रत धारण करने की शिक्षा दी थी।
शाहिदा : लेकिन जिनके घर श्री राम ने जन्म लिया था, वो कोई साधारण पुरुष तो हो-ही नहीं सकते ना?
वेदांत : बिल्कुल। दशरथ जी तो राजा थे और राजा लोग बस राजनीति के चलते दूसरे राज्य से संबंध उत्तम बनाने के लिए अधिक शादियां किया करते थे। केवल इसलिए ही राजाओं की एक से अधिक शादियां होती थी। इसे मैं ठीक नहीं कहता और न ही भगवद गीता इसकी अनुमति देती है, पर मजबूरी में ऐसा करना एक अलग बात है। उसी प्रकार हिन्दू राजा ‘छत्रपति शिवाजी महाराज' ने भी दूसरे राज्यों से संबंध पक्के बनाने के लिए 4 शादियां करी थी, कुछ इतिहासकारों का ये भी कहना है कि उन्होंने 4 नहीं बल्कि 5 शादियाँ करी थी। शिवाजी महाराज ने स्वयं की इच्छा से अधिक शादियां नहीं करी थी, केवल उन्हें राजनीति के कारण ही ऐसा करना पड़ा था। स्वयं की इच्छा होना और मजबूरी में अधिक शादियां करना अलग-अलग बात हैं। द्रौपदी ने भी 5 पाण्डवों से एक साथ शादी करी थी, उसके पीछे द्रौपदी की इच्छा नहीं बल्कि विवशता थी। द्रौपदी ने ये सोचकर 5 पाण्डवों से शादी करली थी कि कहीं 4 पाण्डव सन्यास न ले-लें। और अगर पाण्डवों ने सन्यास लेलिया तब अधर्मी दुर्योधन अपनी प्रजा के साथ बहुत बुरा-बर्ताव करेगा। अगर कोई पुरुष या महिला अपनी इच्छा से एक से अधिक विवाह करना चाहें तो उसे मैं किसी भी स्थिति में उचित नहीं मानूंगा। यहाँ तक कि जो बस काम वासना के कारण मात्र एक शादी भी करना चाहे, वो भी उचित नहीं है।
शाहिदा : लेकिन क्या इसका कोई सबूत है?
वेदांत : सनातन धर्म में शादी के समय जब अग्नि को साक्षी मानकर फेरे लिए जाते हैं, तब स्त्री - पुरुष से 7 वचन भी लेती है। ये एक प्रकार से शर्त के जैसा होता है, अगर पुरुष उन 7 वचनों को स्वीकार कर ले, तभी विवाह संपन्न होता है। अंतिम यानि सातवे वचन में स्त्री पुरुष के आगे ये शर्त रखती है कि मुझसे शादी करने के बाद हमेशा-हमेशा के लिए विश्व की हर अन्य स्त्री को आप अपनी माँ मानोगे, तभी मैं आपसे विवाह करूंगी। जब पुरुष ने इस वचन को स्वीकार कर लिया, तो वास्तव में उसके लिए उसकी एक पत्नी को छोड़कर संसार की सभी अन्य स्त्रियां वास्तव में उसकी माँ बन जाती हैं। इसलिए अगर कोई शादीशुदा पुरुष किसी अन्य स्त्री पर कामुक दृष्टि रखेगा, या अपनी इच्छानुसार एक से अधिक विवाह करेगा तो उसको नरक में अपनी माँ के साथ विवाह करने का ही दण्ड मिलेगा। जो एक पत्नी या पति से संतुष्ट नहीं है वो लोग कलको तीसरी शादी भी करना चाहेंगे, और तीसरी करने के बाद वो चौथी शादी भी करना चाहेंगे। लेकिन तब भी उन्हें और अधिक शादी करने का मन करता रहेगा। क्योंकि एक से अधिक शादी की इच्छा, वास्तव में इच्छा नहीं रहती ये काम वासना बन जाती है, और काम का तो स्वभाव ही है कभी संतुष्ट न होना और निरंतर बढ़ते रहना। इसपर भगवद गीता अध्याय 3, श्लोक 39 में कृष्ण कहते हैं कि “ज्ञानी व्यक्ति का ज्ञान भी अतृप्त काम रूपी नित्य शत्रु से ढका रहता है जो कभी संतुष्ट नहीं होता और आग के जैसे जलता रहता है।" यानी काम एक ऐसी आग है जिसे जितना ही पूरा करके भुजाने का प्रयास करोगे, वो उतना ही अधिक बढ़ती चली जाएगी। जैसे आग को लकड़ी जैसे पदार्थो से तृप्ति मिलती है, पर हम आग को तृप्त करने के लिए जितनी अधिक लकड़ी डालेंगे, वो उतनी अधिक बढ़ती चली जाएगी।