(उन्नीसवाँ विषय)
अध्यात्म का सार
वेदांत : अधिकतर लोगों की समस्या ये है कि वो लोग अपने शरीर को ही अपनी पहचान समझ लेते हैं। लेकिन वास्तव में हम हमारे शरीर के अंदर दिल के पास यानी हृदय चक्र में उपस्थित हैं। हम भौतिक शरीर नहीं आत्मा है, हमेशा भक्ति में संलग्न रहने के कारण हम उस ब्रह्म यानी भगवान श्री कृष्ण से एक ही हैं। हमने इस संसार में कभी जन्म ही नहीं लिया है, क्योंकि जन्म तो शरीर का होता है पर हम तो शरीर हैं ही नहीं। आत्मा यानी हम, न कभी जन्म लेते हैं और न कभी मरते हैं। हम परब्रह्म-परमेश्वर से अलग ही कहाँ है? क्योंकि ईश्वर कृष्ण हम सबके शरीर में परमात्मा यानी निराकार परमेश्वर क्षीरोदकशायि विष्णु के रूप में उपस्थित हैं। हम उन्ही के अंश है। वो कृष्ण हमेशा हमारे साथ रहते हैं। हम उसी परब्रह्म के भिन्न अंश हैं, लेकिन हम उनके दिव्य स्वरूप से एक नहीं है। कृष्ण परब्रह्म यानी वास्तविक ब्रह्म है और उनका वास्तविक विग्रह भी परब्रह्म का ही है। पर हम लोग जब उनके परम धाम गोलोक में होते हैं तो हमें भी उनके परम धाम के जैसा ही रूप मिलता है, इसलिए उपनिषदों में प्रत्येक व्यक्ति को ब्रह्म कहा गया है। क्योंकि हमारा वास्तविक परिचय तो गोलोक का शरीर ही है। गोलोक का ब्रह्म शरीर विश्व के किसी भी दूसरे शरीर से अलग है। वो शरीर भगवान कृष्ण के तत्व से ही बना हुआ है, उस शरीर में हम कृष्णमय हो जाते हैं इसलिए एक प्रकार से हम भी ब्रह्म कहलाते हैं। वैसे ही जैसे पृथ्वी पर हम ‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश' के तत्व से बने हुए रूप को प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार से गोलोक में हम कृष्ण तत्व के रूप को प्राप्त करते हैं। गोलोक में कृष्ण के सिवा और कुछ नहीं है - ऐसा ही सोचना चाहिए। केवल कुछ विकारों के कारण ही हम इस भौतिक संसार में फँस गए है। हम फिलहाल अपने आपको ‘जीवात्मा' के रूप में जानते हैं, लेकिन जिस समय ही हम स्वयं को जीवात्मा से वापसी आत्मा यानी भगवान के भक्त के रूप में जानने लगेंगे। तभी से हम स्वयं को पूरे विश्व से एक हुआ अनुभव करने लगेंगे। क्योंकि परमात्मा कृष्ण पूरे संसार में हर स्थान पर उपस्थित हैं। कृष्ण का निराकार ‘परमात्मा' रूप उनका पूर्ण स्वरूप तो नहीं है, पर भगवान के साकार रूप से निकलने वाले तेज को ही परमात्मा या ब्रह्मज्योति कहा जाता है। कृष्ण का ये रूप भी पूर्ण रूप से जीवित है, क्योंकि कृष्ण तत्व से बनी प्रत्येक चीज़ जीवित है। जब हम स्वयं को आत्मा के रूप में जान लेंगे, तभी से हम पूरे विश्व के सबसे उत्तम सुख ‘ब्रह्मानंद' या ‘कृष्णभावनामृत' को प्राप्त कर लेंगे। हम आत्मा परब्रह्म कृष्ण से अद्वित्य यानी एक है, क्योंकि भगवान और भक्त अलग हो ही नहीं सकते। जिस प्रकार पृथ्वी पर भी भगवान भक्तों के हृदय यानी जीवात्मा के शरीर से छिपी हुई आत्मा में रहते हैं, उसी प्रकार भक्त भी भगवान में रहते हैं। हालांकि हम कृष्ण के वास्तविक दिव्य स्वरूप से कभी एक नहीं हो सकते जैसा की कुछ अद्वैतवादी लोग कहा करते हैं। साथ ही शास्त्रों में कईं स्थानों पर ब्रह्म की व्याख्या ‘भक्त' के रूप में भी करी गई है। हमारा परिचय भी ऐसे ब्रह्म यानी भक्त और कृष्णत्व के सिवा किसी भी चीज़ से नहीं होना चाहिए। जिस समय हम स्वयं को खो देंगे उसी समय हम कृष्णमय हो जाएंगे। इसी भक्तिमय अवस्था को ही वास्तव में अद्वैतव कहा जा सकता है। क्योंकि हमारा परिचय, ये विकारों से भरा हुआ शरीर नहीं है। हम तो पूरे विश्व में एक साथ निवास करने वाले सर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण के दास हैं। इतने विशेष होने के बावजूद भी हम केवल कुछ विकारों के कारण इस जन्म और मृत्यु के चक्र में फँस गए है। इस चक्र से निकलने का एकमात्र उपाय है कि स्वयं को शरीर या जीवात्मा नहीं बल्कि आत्मा के रूप में जानो। जीवात्मा और आत्मा में अंतर ये है कि जीवात्मा दूषित चेतना को कहा जाता है। अलग-अलग चेतना होने के कारण ही हम कर्मबंधन में बंध जाते हैं। कुछ लोग मन की इच्छाओं और कामनाओं के लिए नए ग्रहों का निर्माण करने की इच्छा करते हैं। ईश्वर कृष्ण उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए नए ग्रह बना भी देते हैं, पर फिर वो लोग भी जीवात्मा बनकर जन्म-मृत्य के चक्र में फँस जाते हैं। परम धाम गोलोक में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पृथ्वी से ऊपर के ग्रह जैसे स्वर्ग आदि में जाने की इच्छा करके ब्रह्म स्वरूप से अलग हो जाते हैं। हालांकि उस दिव्य रूप से अलग होना नामुमकिन है। क्योंकि हम आत्मा है, और हम यानी आत्मा कभी कृष्ण से अलग हो ही नहीं सकते हैं। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसो, हमें ईश्वर कृष्ण के साथ ‘गोलोक' में वापसी एक यानी कृष्णमय होना ही है। जब हमें एक होना ही है तो फिर देर किसलिए? क्यों न आज ही कृष्णभावनामृत आंदोलन से जुड़कर परमानंद का अनुभव करलें? कृष्ण की भक्ति में संलग्न होजाने का सुख भौतिक जगत के किसी भी काम वासना से भरे सुख से करोड़ो गुणा अधिक होता है। अभ्यास द्वारा स्वयं का परिचय आत्मा के रूप में पाने का प्रयास कीजिये। आत्मा पृथ्वी से बने शरीर में उपस्थित हैं लेकिन पृथ्वी की क्षमता नहीं कि आत्मा को छू सके, आत्मा जल से बने शरीर में उपस्थित है लेकिन जल की क्षमता नहीं कि इसे छू ले। इसी प्रकार सारे 5 तत्व जल, वायु, आकाश, पृथ्वी, अग्नि को मिलाकर जो हमारा शरीर बना है, इसके अंदर हम उपस्थित हैं। लेकिन इस शरीर को नहीं पता कि हम कौन है? क्योंकि शरीर ने हमें न कभी छुआ है और न शरीर कभी हमें छू पायेगा। हम अपनी इच्छा से ही इस शरीर में घुसकर बैठ गए हैं और बंध गए है। इस शरीर के बंधन से बाहर निकलने के लिए हमें क्यों नहीं सोचना चाहिए? क्या इतने विशेष व्यक्तित्व को ऐसा शरीर शोभा देता है? कृष्ण भगवद गीता में बताते हैं कि वेद भी उनसे ही उत्पन्न हैं पर वेदों में अधिकतर सकाम यानी फल की इच्छा वाले कर्म करने की बात कही गई है, जबकि निष्काम यानी बिना फल की इच्छा वाले कर्म को रहस्यमय प्रकार से बताया गया है। क्योंकि वेद अधिकांश भौतिक लाभ के कर्मकांड पर आधारित हैं, जबकि भगवद गीता पूर्ण रूप से अध्यात्म, भक्ति और शांति सिखाती है। इसलिए भगवान कृष्ण ने बताया है कि भक्त को वेदों में बताए गए सत्व, राजस और तमस गुण से ऊपर उठना चाहिए। भक्त को इन तीनों गुणों को ही अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। गीता अध्याय 2 श्लोक 47 में कृष्ण कहते हैं कि “तुझे कर्म करने का ही अधिकार है, उसके फलों का कभी नहीं। इसलिए तू केवल कर्म कर और फल की इच्छा मत रख तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।" इसका तातपर्य ये है कि प्रकृति के तीन गुणों से ही कोई भी कार्य पूरा किया जाता है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वो केवल कर्म करता रहे और उसके फलों की इच्छा न करे। क्योंकि हमारा अधिकार तो केवल ये निर्णय करने का है कि हम कोई कार्य करेंगे या नहीं करेंगे। और उसके बाद फिर निर्णय करके कर्म को उत्तम प्रकार से करना हमारा कर्तव्य है। लेकिन हम कभी भी कर्मफल के अधिकारी नहीं हैं क्योंकि कर्मफल हमारे हाथ में कभी नहीं हो सकता है। अधिकांश दुख तो हमें कर्मफल की इच्छा रखने से ही होता है। क्योंकि जो व्यक्ति जीतने की इच्छा रखता है, हारने के बाद उसे बहुत दुख होता है और उस दुख के कारण वो कुछ गलत कर्म करने के लिए भी प्रेरित हो सकता है। और जो व्यक्ति जीतने की इच्छा रखकर जीत भी जाता है वो अहंकारी हो सकता है, और अहंकारी मनुष्य के लिए भगवान का भक्त बनना असंभव है। हम लोग कर्मबंधन में दो कारणों से बंधते हैं, एक तो अच्छे कर्म करके उस कर्म के फल की इच्छा रखने से, और बुरे कर्म करके उस बुरे कर्म के फलों से। वेद हमें अच्छे कर्म करके उनके पुण्यों के कारण स्वर्ग से बंधने के लिए अधिक प्रेरित करते हैं, यही अंतर है वेद और भगवद गीता में। हालांकि वेदों की वास्तविक शिक्षा ‘वेदांत’ उपनिषदों को सही से पढ़ा जाए तो गीता और उनमें कोई अंतर नहीं दिखेगा।