(बीसवाँ विषय)

कर्मबंधन और पुनर्जन्म



शाहिदा : कर्मबंधन क्या होते हैं?


वेदांत : पुण्य और पाप के फलों से जन्म-मृत्यु का बंधन लग जाता है। अगर कोई मनुष्य भक्ति करते हुए बिना किसी लालच के सिर्फ अपना कर्तव्य समझकर अच्छे कर्म कर रहा है, तो वो कर्मबंधन में नहीं बंधता। पर जो व्यक्ति बुरे कर्म करता है वो तो 100% कर्मबंधनों में बंध जाता है। कर्मबंधन हमें स्वर्ग, नरक और पुनर्जन्म से जोड़ते हैं। जो मनुष्य अच्छे कर्म करके उसके फल की इच्छा करता है उसे फल में स्वर्ग या किसी दूसरे भोगों वाले ग्रहों पर जन्म मिलता है। वहीं जो बुरे कर्म करता है उसे नरक जाना पड़ता है, या फिर उसे दुखों से भरे हुए ग्रहों में ही पुनर्जन्म मिलता है। एक प्रसिद्ध हिन्दू विद्वावान आचार्य प्रशांत तो कहते हैं कि पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि वस्ताव में वो नास्तिक हैं, क्योंकि वो अद्वैतवादी हैं। उन्होंने तो भगवान के अस्तित्व से ही इनकार कर दिया है, फिर पुनर्जन्म कहा से मान लेंगे वो? ईश्वर के 2 मुख्य गुण होते है, पहला दयावान और दूसरा सर्वशक्तिमान। जबकि आचार्य प्रशांत जी जिस ब्रह्म की बात करते हैं, वो तो अपाहिज और लाचार सा है तथा दयावान भी प्रतीत नहीं होता। वहीं उनके अनुसार प्रकृति भी मूर्ख है, जो अकारण ही अनेकों जीव बनाई जा रही है। ईश्वर की इस प्रकार की व्याख्या नास्तिकवाद ही है। लेकिन इन दिनों वो उपनिषदों और गीता से ये सिद्ध करने में लगे हुए हैं कि उपनिषदों में प्रत्येक जीवात्मा के पुनर्जन्म होने का उल्लेख नहीं है। इसलिए चलिए मैं आपको सबसे प्रसिद्ध उपनिषद ‘ईशावास्य' का ही एक मंत्र बताता हूँ। ईशावास्य उपनिषद, मंत्र 3 में कहा गया है “राक्षस सम्बन्धी जो लोक यानी ग्रह और योनियाँ यानी शरीर हैं, वो अज्ञान और अंधेरे से ढके हुए हैं। जो मनुष्य आत्मा को नहीं समझता, वो मरकर उन्ही लोकों को प्राप्त होते हैं।"  इस मंत्र में स्पष्ट तौर पर ये बताया गया है कि जो लोग आत्मा को नहीं समझते और राक्षस स्वभाव के होते हैं वो मरने के बाद उन्हीं लोक यानी ग्रह या शरीर को प्राप्त करते हैं। मुर्ख अज्ञानी अद्वैतवादी कहते हैं कि मरने के बाद हर कोई पूरे विश्व में उपस्थित भगवान के ब्रह्म रूप से एक हो जाएंगे। और वो लोग पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। पर ईशावास्य उपनिषद का ये एक मंत्र जो मैंने आपको बताया है, यही मंत्र उन लोगों का मुँह बन्द करने के लिए पर्याप्त है। भगवान कृष्ण ने भगवद गीता के अध्याय 2, श्लोक 12 में अर्जुन से कहा कि - “न तो ऐसा है कि मैं किसी समय नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ही ऐसा है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।" इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने पुनर्जन्म का ही उल्लेख किया है। पुनर्जन्म भगवान का किया गया एक न्याय है। जो व्यक्ति पुनर्जन्म को सच नहीं मानता, वो एक प्रकार से भगवान के अस्तित्व को मानने से ही इनकार कर रहा है। इसे समझने के लिए हमें केवल ये सोचना है कि इस जगत में कोई दरिद्र घर में जन्म ले रहा है, तो कोई धनवान के घर मे जन्म ले रहा है रहा है - ऐसा क्यों है? और बात केवल दरिद्र और धनवान या सुख और दुख की ही नहीं है, लेकिन कोई जीवात्मा पशु बन रही है तो कोई पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि। पर जो लोग भगवान को मानते हैं यानी आस्तिक हैं, उनको ये अवश्य समझना चाहिए कि भगवान किसी से भेदभाव नहीं करते हैं। क्योंकि जो भेदभाव करता है वो एक ढंग का मनुष्य भी नहीं हो सकता, भगवान तो दूर की ही बात है। प्रत्येक जीवात्मा को भगवान के धाम वापसी लौटने का भी पूरा अधिकार है। पर जो पशु, पक्षी, कीड़ेमकोड़े हैं, वो कैसे ज्ञान या भगवान को पा सकेंगे? क्योंकि उनमें तो कोई समझ ही नहीं है। ऋग्वेद में स्पष्ट बताया गया है कि पिछले जन्म के कर्मों से ही हमारा जन्म किसी मज़हब, जाती सम्प्रदाय या फिर शरीर में होता है। जिन्हें ब्राह्मण वर्ण से अधिक लगाव है या फिर जिनके कर्म ब्राम्हणों जैसे हैं, अगर उनको इस जन्म में मुक्ति नहीं मिली तो उन्हें अगला जन्म ब्राह्मण परिवार में ही मिलेगा। उसी प्रकार वैश्य यानी व्यापारी, क्षत्रिय यानी सैनिक और शूद्र यानी सेवकों के जन्म भी कर्म या इच्छा पर ही निर्भर होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि अगर कोई शुद्र वर्ण का है तो उसने पिछले जन्म में बुरे कर्म ही किये होंगे तभी वो शुद्र बना है। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि उसे पिछले जन्म में शूद्रों का कर्म करने में ही आनंद आता हो। जैसे आज भी कई लोग हैं जो लखपति या करोड़पति होने के बावजूद भी सड़कों से कूड़ा उठाते हुए दिखते हैं, क्योंकि उन्हें कूड़ा साफ करना और धरती को स्वछ बनाना ही अच्छा लगता है। और कई लोगों को अकारण अन्य लोगों की सेवा करने में आनंद आता है। पर कोई भी व्यक्ति कभी भी अपनी इच्छानुसार जन्म वर्ण में परिवर्तन कर सकता है। कृष्ण ने इसके बारे में भगवद गीता अध्याय 18 श्लोक 41 से 48 में बताया है। कृष्ण ने बताया है कि वर्ण व्यवस्था तो मनुष्य के स्वाभाविक कर्म और गुणों पर निर्भर करता है। प्रत्येक सम्प्रदाय अथवा मज़हब में कई प्रकार की विचारधारा होती है। इन दिनों के अद्वैतवादी लोग ये कहते हैं कि जीवात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता है और इसके लिए वो पुरुष और प्रकृति का तर्क देते हैं। उनका कहना है कि प्रकृति अहम वृति की मुक्ति के कारण ही अलग - अलग प्रकार के जीव बना रही है। उन लोगों के तर्क अज्ञानियों को बहुत अच्छे लगते हैं, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। उन लोगों ने इस विश्व से भगवान की भूमिका को ही हटा दिया है। उनके अनुसार प्रकृति एक पागल है जो व्यर्थ में कुछ भी रचना किये जा रही है, जबकि पुरुष यानी ‘ब्रह्म' एक अपाहिज है। अद्वैतवादी लोगों के तर्क उतने ठीक नहीं है जितने वैष्णवों के हैं। कुछ अन्य पंथ के अद्वैतवादी लोग ये भी कहते हैं कि हमलोग जब स्वयं को आत्मा के रूप में जान लेंगे तब हम जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटकर परब्रह्म यानी ईश्वर में ही मिलकर एक हो जाएंगे क्योंकि हम प्रकृति के 3 गुण सत्व, रजस और तमस से दूषित हो जाने के कारण ही इस भौतिक संसार में फँस गए हैं। पर इस बात में भी उतनी गहरी सच्चाई नहीं है जितना वो लोग समझते हैं। अगर वो ये समझते हैं कि हम पहले ब्रह्म से एक थे और बाद में अलग हुए हैं, तो उनको ये बात भी माननी पड़ेगी कि तब भी हमारी चेतना ब्रह्म से अलग थी। क्योंकि अगर हमारी चेतना ब्रह्म से अलग होगी तभी तो हम इच्छाएं करके दूषित होकर परब्रह्म से अलग हो सकते हैं। लेकिन अगर हमारी चेतना अलग - अलग थी तो हम ब्रह्म से एक भी कैसे थे? भगवान के निराकार रूप यानी अद्वैतवाद का पूर्ण रूप से पालन करना ऐसा है जैसे कोई कांच की बोतल में बंद शहद को बोतल के बाहर से चाट रहा हो। उसको न वो मीठा लगेगा और न नमकीन लगेगा। यानी उसे न सुख मिलेगा और न दुख। वो ये सोच लेगा कि शहद का कोई स्वाद होता ही नहीं है वो न मीठा है और न नमकीन है। उसी प्रकार निराकार ब्रह्म को पूर्ण ईश्वर मानने वाले लोग बिना किसी आनंद और भक्तिरस के पूरे जीवन एक ऐसे निराकार ब्रह्म रूप का ध्यान करते हैं, जिनमें उन्हें कोई विशेष रुचि भी नहीं है। यही कारण है कि आप स्वयं ही अधिकांश अद्वैतवादी लोगों के चेहरों को देखकर ही बता सकते हो कि ये लोग अंदर से कितने अधिक दुखी और कष्ट में है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 12 श्लोक 2 में भगवान ने स्पष्ट बताया है कि उन्हें निराकार मानना, या पूरे विश्व को पूर्ण रूप से अद्वैत मानना मूर्खता है। फिर इसी अध्याय के श्लोक 3 और 4 में भगवान कृष्ण कहते हैं “जो लोग इन्द्रियों को सही से वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्व्यापी, अकथनीय, और सदा एक जैसे रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सब लोगों के लिए अच्छा सोचने वाले सबमें एक जैसे भाव वाले योगी भी मुझको ही प्राप्त करते हैं।" यानी कि वो लोग जो ब्रह्म को ही पूर्ण ईश्वर मानते हैं वो भी समाज में अच्छे कर्म करके किसी न किसी जन्म में भगवान को प्राप्त कर ही लेते हैं। फिर भगवान ने अध्याय 12, श्लोक 5 में कहा “मेरे उस निराकार ब्रह्म रूप में रुचि रखने वाले लोगों के साधन में कड़ा श्रम आवश्यक है क्योंकि जो लोग शरीर से ही अपना परिचय पाते हैं उनसे अकल्पनीय ब्रह्म की भक्ति बहुत कठिनाइयों और दुखों से करी जाती है।" इसका तात्पर्य है कि स्वर्ग की लालच से तो मनुष्य भगवान की किसी भी रूप में पूजा कर लेंगे। पर जब हम केवल अध्यात्म को चाहते हों, हमारे लिए स्वर्ग का कोई मूल्य ही नहीं हो और भगवान से किसी भी प्रकार का कोई लालच नहीं हो, उसे ही भक्ति कहते हैं। भगवद गीता अध्याय 2 के श्लोक 13 में भगवान बताते हैं कि “जैसे जीवात्मा का इस शरीर में बचपन, जवानी और बुढापा होता है, वैसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है।" अगर भगवद गीता पुनर्जन्म को झूठे अद्वैतवादियों के जैसे बता रही होती तो भगवान कृष्ण बचपन, जवानी और बुढ़ापे के बाद फिर दूसरे शरीर की बात बिल्कुल नहीं करते। दरअसल जिस प्रकार से जीवात्मा मनुष्य या किसी भी जीव के रूप में जन्म लेती है फिर उसको बचपन, जवानी और बुढ़ापे से गुज़रना पड़ता है। उसी प्रकार शरीर की मृत्यु के बाद जीवात्मा दूसरे शरीर को ग्रहण कर लेती है। फिर चाहे उसके कर्मों के कारण उसे भौतिक शरीर मिले या आध्यात्मिक, पर शरीर अवश्य मिलता है। जिन लोगों में इस शरीर के अंतिम समय तक भी इच्छाएं समाप्त नहीं होती, वो लोग जन्म-मृत्यु के चक्र में हज़ारों, लाखों और करोड़ो वर्षों तक भी फँसे रहते हैं।