(इक्कीसवाँ विषय)

आत्मसंतुष्टि



वेदांत : अक्सर जब हम कोई आध्यात्मिक बातें सुनते हैं तो हमारा मन केवल उसी में ही दृढ़ होजाता है। लेकिन फिर हम संसार और सांसारिक संबंधों की ओर फिरसे देखते हैं, तब दुबारा से उसी में उलझ जाते हैं। इसपर भगवान श्री कृष्ण ने अध्याय 2, श्लोक 14 में सर्दी और गर्मी का उदाहरण देकर बताया हैं कि भौतिक विषयों में केवल थोड़े समय के लिए ही सुख या दुख होता है। इसलिए हमें अपने इंद्रियों को असंतुष्ट या अशांत करने वाले विषयों पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। मनुष्य जिस भी विषय या वस्तु के बारे में अधिक सोचता है, उसका मन वही करने के लिए उत्सुक हो जाता है। अगर हम विश्व के भोगों की ओर अधिक ध्यान देंगे तो हमारा मन भी कभी संतुष्ट न करने वाले विषयों की ओर भागने लगेगा। उसी प्रकार अगर हम भगवान और भक्ति पर ध्यान देंगे तो हमारा मन भी भक्त बनने के लिए उत्सुक हो जाएगा। भक्ति में संलग्न होने के लिए मनुष्य को अपनी निजी इच्छाओं पर नियंत्रण करना ही सबसे अधिक आवश्यक है। क्योंकि ऐसा तो बिल्कुल भी संभव नहीं है कि हम जो चाहे, हमें वही चीज़ मिल भी जाये। क्योंकि इस जगत में भगवान के इलावा किसी के पास भी सबकुछ प्राप्त कर सकने की शक्ति नहीं है। जिस प्रकार इंद्र स्वर्ग के राजा होने के बावजूद भी कभी - कभी पृथ्वी के विषयों से आकर्षित हो जाते हैं। वैसे ही बहुत कुछ होने पर भी हमारे पास कुछ न कुछ कमी तो रह ही जाती है। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति को चाहते हैं तो उसे ‘इच्छा' कहते हैं, पर उसको हर हाल में पाने की सनक को ‘काम' कहा जाता है। इच्छा जब काम बनजाती है तो उसमें विघ्न होने से हमें बहुत क्रोध भी आ जाता है। क्रोध हमें सुख पहुचाने के लिए बिल्कुल भी नहीं होता है बल्कि उससे तो हम और भी अधिक विकारों से भर जाते हैं, क्रोध के कारण हम अधिक दुखी होने लगते हैं। जब क्रोध बढ़ जाता है तो उससे मूर्खता भी बढ़ती चली जाती है। क्योंकि क्रोध और काम, ये दो विकार ऐसे हैं जिससे मनुष्य अपने आपको बहुत कठिनाइयों से ही बचा सकता है। पर अगर कोई व्यक्ति क्रोध और काम के वश में हो जाता है तो उसमें सोचने समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। जिसमें सोचने और समझने की शक्ति नहीं होती, ऐसा व्यक्ति किसी योग्य नहीं रह जाता।


शाहिदा : इस अशांति से भरे काम से बचने के लिए हमें क्या विशेष करना चाहिए?


वेदांत : काम यानी हद से अधिक इच्छाएं होने से बचने के लिए आपको चाहिए कि आप अपनी इंद्रियों को भगवान और संसार के सभी लोगों की सेवा में लगाएं। क्योंकि जब तक इंद्रियां भगवान की सेवा में और लोक कल्याण में नहीं लगती, तब-तक अध्यात्म से नीचे गिरने की संभावनाएं बनी रहती है। जब हम भगवान की सेवा में अपने शरीर का प्रयोग करने लगते हैं, उससे हमारी बुद्धि भी शुद्ध होने लगती है। बुद्धि शुद्ध होने से हम दृढ़ता से हमेशा अध्यात्म के मार्ग पर चल सकते हैं। काम वासना से आसक्त हुए लोग बहुत प्रयास करते हैं अपनी इच्छाओं को पूरा करके सुखी होने का। मगर जैसाकि भगवान ने गीता में बताया है कि इन्द्रीयतृप्ति यानी शारीरिक सुख भी केवल कुछ क्षणों के लिए ही सुख या संतुष्टि देता है, वो प्रसन्नता टिकने वाली नहीं है। और अधिकांश नास्तिक लोग जिन सुखों को वास्तविक आनंद समझते हैं, वो असंतुष्टि का कारण ही होता है। जिस मनुष्य की बुद्धि में संतुष्टि और शांति नहीं है उसे वास्तविक सुख, यानी ‘कृष्णभावनामृत' का आनंद मिलना भी असंभव है। गुरुदेव ‘श्रील प्रभुपाद' कहा करते थे कि इस भौतिक जगत में आनंद करना ब्लेड की धार पर लगा हुआ शहद चाटने के जैसा है। गीता में कृष्ण बताते हैं कि जैसे साधारण लोग इन्द्रीयतृप्ति को पूरा करने के लिए कर्म करते हैं, वही भक्त लोग उन लोगों से बिल्कुल अलग होते हैं। भक्त इन्द्रीयतृप्ति पर ध्यान न देकर मात्र भक्ति पर ध्यान देते हैं और भगवान की सेवा या समाज कल्याण के लिए ही कर्म करते है। सत को समझों और असत का त्याग करो। 


शाहिदा : सत और असत का क्या अर्थ है?


वेदांत : सत शब्द को आत्मा और परमात्मा के लिए प्रयोग किया जाता है। भगवद गीता के अध्याय 2, श्लोक 16 में भगवान ने सत शब्द आत्मा के लिए कहा है। उस श्लोक में भगवान बताते हैं कि जो असत है यानी झूठ है, वो तो कभी टिकता नहीं है। जबकि जो सत है यानी जो सच है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं आता है। दूषित चेतना होने से जैसे आत्मा - जीवात्मा बन जाती है, उसी प्रकार भगवान का शुद्ध भक्त बनके कोई भी जीवात्मा वापसी परम आत्मा की श्रेणी में आ जाती है। इसका तात्पर्य ये नहीं है कि आत्मा में परिवर्तन आ गया, जबकि इसका तात्पर्य ये होता है कि दूषित चेतना होने के कारण आत्मा बस अपनी पहचान भूल जाती है और भौतिक जगत में गिर जाती है। उसी प्रकार से जैसे गुंडे या गैंगस्टर लोगों के ऐश्वर्य को देखकर कई लोग उसके जैसा बनना चाहते हैं, ये जानते हुए भी कि प्रत्येक गुंडे का जीवन अपराध और पाप से भरा होता है, साथ ही उनका अंत समय भी बुरा ही होता है। कुछ लोग आत्मा को काल्पनिक मानते हैं। क्योंकि आत्मा को भौतिक आंखों से देखा नहीं जा सकता है, तो लोग यही सोच लेते हैं कि आत्मा होती ही नहीं है। मायावादी या अद्वैतवादी लोग ये मानते हैं कि आत्मा परमात्मा का भिन्न अंश है और ये सच जानने के पश्चात आत्मा पुनः परमात्मा से जुड़ जाएगी। जबकि उनके तर्कों में कुछ भी शास्त्र प्रामाणिक नहीं है, भगवद गीता के ज्ञान को जानने वाला व्यक्ति ही आत्मा को इसके वास्तविक रूप में समझ सकता है। भगवान या आत्मा ही सत है और बाकी सबकुछ असत है। कई ढोंगी संस्थाएं हैं जो अपने स्वयं के विचारों के अनुसार ही भगवद गीता की व्याख्या करती है, ऐसा करना घोर अपराध है। वो लोग भगवद गीता को इसके वास्तविक रूप से न समझकर अपनी समझ के अनुसार इसके अर्थों में परिवर्तन कर रहे हैं। ऐसा करके वो लोग न केवल अपने जीवन को नरक बनाये हुए हैं, बल्कि बाकी कई लोगों को भी वास्तविक भगवद गीता से दूर रखकर नीचों वाला कार्य कर रहे हैं।


शाहिदा : अगर पुनर्जन्म सच है तो क्या हमारे इस जन्म के सारे संबंधी बिछड़ जाएंगे? और मरने के बाद उन्हें कौनसा शरीर मिलेगा, ये पता चल सकता है क्या?


वेदांत : ये बिल्कुल भी पता नहीं चल सकता, भले ही कोई कुछ भी कहदे, लेकिन हमें पुनर्जन्म या पूर्वजन्म का पता लगना असंभव है। मैंने पहले ही बता दिया है कि पुनर्जन्म का सारा खेल अच्छे कर्मों के फल की इच्छा, बुरे कर्मों का फल, और बाकी संसार के लोगों से आसक्ति पर टिका हुआ है।


शाहिदा : हम अपने इस जन्म के संबंधियों से बहुत मोह ग्रहस्त रहते हैं, उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है?


वेदांत :  ये सच है और सामान्य भी है। अक्सर हमारी अपने संबंधियों या मित्रों से आसक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है। फिर जब वो हमसे अलग हो जाते हैं तो हमें बहुत दुख होता है। लोगों से बहुत आसक्ति को समाप्त करने लिए बस विश्व की सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए। जीवात्मा चाहे जिस भी शरीर में रहे, उस शरीर को आज नहीं तो कल नष्ट होना ही पड़ता है। लोग अपने आप को लंबे समय तक जीवित रखने के लिए अलग - अलग प्रकार के प्रयास करते हैं, पर वास्तव में सभी जानते हैं कि वो इस शरीर के साथ अमर नहीं हो सकते। लोग इस सच को जानते तो हैं कि वो अमर नहीं है फिर मरने के बाद उन्हें पुनः किसी दूसरे शरीर में जन्म लेना ही पड़ेगा। लेकिन स्वयं के स्वार्थ और भोगों में आसक्त हुए लोग इस सच को जानते हुए भी नकारना चाहते हैं। जैसे बुरा कर्म करने के कारण भूत-प्रेत बना व्यक्ति प्रेत के शरीर में घोर दुख में होने के बावजूद भी अच्छे कर्म करने के स्थान पर बुरे कर्म करना ही पसंद करता हैं, उसी प्रकार भोगों के स्वार्थ को ही वास्तविक सुख मानने वाले लोग गोलोक के दिव्य, शुद्ध और स्वच्छ शरीर को छोड़कर, जो किसी भी स्थिति में पूर्ण रूप से स्वच्छ और शुद्ध नहीं हो सकता है - ऐसे मनुष्य के शरीर को पसंद करते हैं। पुनर्जन्म से बचने के लिए हमें मात्र कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। भक्ति करना ही इस जगत का सबसे ऊँचे स्तर का लाभ है, भक्ति का परिणाम हमेशा रहने वाला ‘आनंद, शांति और संतुष्टि' है।