(बाइसवाँ विषय)
भक्त के लक्षण
शाहिदा : कृष्ण भक्त कैसे होते है?
वेदांत : भगवान की भक्ति में लालच आ जाये तो वो भक्ति ही नहीं रहेगी क्योंकि वास्तव में लालची लोग भगवान की ठीक से भक्ति कर ही नहीं सकते है। वो बस लालच के कारण से अपने माने हुए आनंद के अनुसार ही पूजा करते हैं। ऐसे लोग केवल पृथ्वी के भोग भोगने और स्वर्ग जाने की इच्छा रखते हैं उन्हें भगवान में कोई रुचि नहीं होती है। जब मनुष्य भगवान की भक्ति में संलग्न हो जाता है, उसका विश्वास, मन और बुद्धि केवल और केवल भगवान में ही ठहर जाते है तभी वो भक्त कहलाता है। जिसका सोना-जागना, हँसना-रोना, नाचना-गाना सबकुछ भगवान के लिए होता है उसे ही भक्ति में संलग्न कहा जाता है। निराकार ब्रह्म का तो कोई निश्चित रूप ही नहीं है। जिसका रूप है-ही नहीं उसे सुंदर कैसे कहेंगे? जबकि सुंदरता भगवान का सबसे अधिक विशेष गुण है। अगर हम विश्व की सारी सुंदरता को जोडलें फिर भी श्री कृष्ण के जैसा रूप नहीं बन पाएगा। उनके बहुत सुंदर रूप, उनके तेजमय घुंघराले बाल, पीताम्बर, कानों में स्वर्ण कुंडल, सिरपर सजाए मोरमुकुट से लेकर पैरों की स्वर्ण मुद्रिका वाला श्रीकृष्ण रूप विचार करने मात्र से ही संतुष्टि और प्रसन्नता देने वाला है। कृष्ण के उस दिव्य स्वरूप के बारे में बस विचार करके ही एक भक्त विश्व के सभी ऐश्वर्य और भोगों की वस्तुओं को पूर्ण रूप से भूल सकता है। इसलिए ग्रंथों में जैसा बताया गया है, भगवान के श्री कृष्ण रूप का ही ध्यान करना चाहिए। अगर हम निराकार ब्रह्म पे ध्यान लगाते हैं तब न सुख मिलेगा और न ही भगवान से प्रेम ही-हो पायेगा। भगवद गीता में कृष्ण जी ने कई अध्यायों में और विशेष तौर पर अध्याय 12 में अपने भक्त के विषय में कुछ लक्षण बताए हैं। अगर किसी व्यक्ति में वो लक्षण नहीं मिलते हैं, तो समझ लेना चाहिए वो भक्त है ही नहीं। हो सकता है कि वो भक्त बनने का प्रयास कर रहा हो, पर केवल शरीर से भगवान की पूजा करने से ही कोई शुद्ध भक्त नहीं बनता, बल्कि उसका व्यवहार और विचार ये सिद्ध करते हैं कि क्या वो वास्तव में भक्त है या नहीं। भक्त के गुण कुछ इस प्रकार होते है - वो सबका प्रिय होता है यानी किसी से अभद्रता के साथ बात नहीं करता। सभी प्राणियों, जिनमें भी जान है उनके लिए अपने मन में प्रेम रखता है। बहुत दयालु और क्षमा कर देने वाला होता है, अगर किसी से कोई अपराध भी हो जाये तो वो उस अपराधी को भी अभय देने वाला होता है। वो अपराधी के लिए भी मन में क्रोध नहीं रखता, बल्कि दयाभाव से ये सोचता कि काश वो पहले ही उसके लिए कुछ ऐसा कर पाता जिससे अपराधी को अपराध करने की प्रेरणा मिलती ही नहीं। वो अपने लिए कभी नहीं सोचता, बस विश्व को सुख देने के लिए कर्म करता है। अपनी सभी तृष्णा, लोभ, इच्छा और आकांक्षा को नष्ट कर देता है। स्वयं के सुख के लिए कोई कार्य नहीं करता। जो किसी से डरता नहीं और न किसी को डराने वाला होता है। हिंसा को अधर्म समझता है। नम्र स्वभाव यानी थोड़ा भी अहंकार वाला नहीं होता है, जो पूर्ण रूप से संतुष्ट है, प्रसन्न है, उसके लिए स्वर्ग और नरक एक ही जैसा है वो तो केवल भगवान की भक्ति में लीन होकर निरंतर भजन-कीर्तन करता है। सुख और दुख में समान भावना रखता है। जीत और हार में भी कोई अंतर नहीं करता। किसी से सम्मान की भी इच्छा नहीं रखता क्योंकि वो जानता है कि जो लोग आज सम्मान दे रहे हैं कल वही लोग अपमान भी कर सकते हैं। शुभ और अशुभ की परवाह नहीं करता वो सोचता है शुभ तो केवल मेरे कृष्ण और कृष्णभक्ति ही है बाकी संसार में कुछ भी शुभ नहीं है। पूर्ण रूप से मन, इन्द्रिय और बुद्धि को अपने वश में किये हुए है। किसी के लिए ह्रदय में द्वेष तथा क्रोध नहीं रखता। और निंदा, चुगली या किसी के द्वारा काम वासना पूर्ति करने की सोच आदि न करके अंदर से स्वछ रहता है, और प्रतिदिन स्नान करके अपने शरीर को भी स्वछ रखता है। सुबह जल्दी उठता है और रात्रि में जल्दी सो जाता है, यानी जो व्यर्थ में न कम सोता है और न अधिक सोता है। जो न अधिक जागता है, न अधिक सोता है तथा अपने शरीर की शक्ति के अनुसार ही कर्म करता है। वो सबसे प्रेम तो रखता है लेकिन किसी से भी ममता या मोह नहीं रखता। जिसके मन से वासना लुप्त चुकी है और जो मात्र भजन करने में ही परम आनंद है - ये समझता है। धैर्य, संयमता और क्रोध न होना ये सारे गुण मिलाकर ही मनुष्य को भक्त की श्रेणी में रखा जाता है। उसी प्रकार भोजन में भी भक्तों के कुछ विशेष लक्षण होते हैं। भक्त सात्विक, कम मसाले वाला, बिना प्याज़-लस्सन और बिना दूसरे काम और क्रोध को बढ़ाने वाला, पेट में जलन न करने वाला, शाकाहारी, हल्के और उम्र को बढ़ाने वाला खाना-खाता है। वो चाय और कॉफी जैसी नशीले पदार्थों का भी सेवन नहीं करता जिससे मनुष्य के शरीर में अप्राकृतिक व्यवहार होने लगता हो। प्याज़ और लस्सन भी गरम खाना है। आयुवेद में बताया गया है कि गरम खाना-खाने से शरीर की अग्नि, जिसे आप अंदरूनी तापमान भी कह सकते हो वो बढ़ता है। अग्नि बढ़ने से 2 चीज़ों का विकास होता है कामोत्तेजना यानी संभोग की इच्छा और क्रोध। कामोत्तेजना अधिक होने के कारण व्यक्ति को विपरीत लिंग के लोगों की आवश्यकता भगवान से भी अधिक लगने-लगती है। साथ ही कामोत्तेजना से कही लोगों को तो पवित्र संबंध भी समझ में नहीं आते हैं। क्रोध बढ़ने के कारण अहंकार, अभद्र शब्द, मलीन विचार, जलन और दूसरों को नीचा दिखाने जैसे विकार भी अपने आप बढ़ जाते हैं। भक्त के लिए तो भगवान से बढ़कर कोई नहीं होना चाहिए, और भगवान तक पहुँचने के लिए जिन भी नियमों का पालन करना आवश्यक है उनमें दृढ़ रहना चाहिए। इसलिए जिस प्रकार थोड़े से सात्विक भक्त मदिरा यानी शराब से दूर रहते हैं उसी प्रकार परम भक्त प्याज़, लस्सन और चाय-कॉफी का सेवन भी नहीं करते। भक्ति के मार्ग से दूर लेजाने वाली प्रत्येक वस्तु भक्त के लिए व्यर्थ है। शुद्ध भक्त उन्हें नहीं कहते जो बलपूर्वक मन को मारकर सांसारिक विषय-वस्तुओं को छोड़ रहे हैं। बल्कि भक्त का अर्थ है जिसे संसार के किसी भी दूसरे सुख से अधिक सुख भक्ति में मिल चुका है। जब श्रील प्रभुपाद अमरीका गए थे तब वहाँ बहुत सारे हिप्पी लोग थे। वो हिप्पी लोग सरेआम ड्रग्स का नशा करते थे, सरेआम सड़को पे भोग करते थे, कई महीनों तक नहाते नहीं थे और भी उनमें बहुत सारे भयंकर दोष थे। प्रभुपाद जी ने बिना कोई स्वर्ग का लालच दिए, उन्हें सबसे पहले भजन और हरे कृष्ण महामंत्र सुनाकर भगवान से जोड़ना शुरू किया। हिप्पीज़ को धीरे-धीरे भजन में आनंद आने लगा, फिर हिप्पीज़ ने स्वयं भगवद गीता को ध्यान से समझना चाहा। प्रभुपाद ने पहले उन्हें भगवान के भजन में लगाया और फिर भगवद गीता का ज्ञान दिया। भगवान के नाम ही इतने पवित्र हैं कि एक बार उनका जाप करना शुरू किया जाए, तो अपने आप ही उसमें आनंद आने लगता है। वो हिप्पीज़ जो ड्रग्स का नशा किया करते थे और जिन्हें बहुत अधिक भोग की लत लगी हुई थी, वो भगवान के नाम में इस प्रकार से खोए कि कुछ ही महीनों में उन्होंने ड्रग्स लेना तो दूर, चाय और कॉफी का नशा करना भी बंद कर दिया। साथ ही अधिकांश हिप्पीज़ ब्रह्मचारी बन गए। जब ऐसे लोग मोह-माया का त्याग कर सकते हैं, तो सामान्य लोग क्यों नहीं?